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________________ मृगापुत्रका मातापिताके साथ संवाद अत्यंत असह्य कोल्हूमें ईखकी भाँति आक्रंदन करता हुआ मैं अति रौद्रतासे पेला गया था। यह सब जो भोगना पड़ा वह मात्र मेरे अशुभ कर्मके अनंत बारके उदयसे ही था। साम नामके परमाधामीने मुझे कुत्ता बनाया, शबल नामके परमाधामीने उस कुत्तेके रूपमें मुझे जमीन पर पटका; जीर्ण वस्त्रकी भाँति फाडा; वृक्षकी भाँति छेदा; उस समय मैं अतीव तडफडाता था। विकराल खड्गसे, भालेसे तथा अन्य शस्त्रोंसे उन प्रचंडोंने मुझे विखंडित किया था। नरकमें पाप कर्मसे जन्म लेकर विषम जातिके खंडोंका दुःख भोगने में कमी नहीं रही। परतंत्रतासे अनंत प्रज्वलित रथमें रोझकी भाँति बरबस मुझे जोता था। महिषकी भाँति देवताकी वैक्रिय की हुई अग्निमें मैं जला था। मैं जलता हुआ असातासे अत्युग्र वेदना भोगता था। ढंक गीध नामके विकराल पक्षियोंकी सँडसे जैसी चोंचोंसे चूंथा जाकर अनंत बिलबिलाहटसे कायर होकर मैं विलाप करता था। तृषाके कारण जलपानके चिन्तनसे वेगमें दौडते हुए वैतरणीका छरपलेकी धार जैसा अनन्त दुःखद पानी मुझे प्राप्त हुआ था। जिसके पत्ते खड्गकी तीव्र धार जैसे हैं, जो महातापसे तप रहा है, वह असिपत्रवन मुझे प्राप्त हुआ था; वहाँ पूर्वकालमें मुझे अनंत बार छेदा गया था। मुद्गरसे, तीव्र शस्त्रसे, त्रिशूलसे, मूसलसे तथा गदासे मेरे शरीरके टुकडे किये गये थे। शरणरूप सुखके बिना मैंने अशरणरूप अनंत दुःख पाया था। वस्त्रकी भाँति मुझे छरपलेकी तीक्ष्ण धारसे, छुरीसे और कैंचीसे काटा गया था। मेरे खंड खंड टुकडे किये गये थे। मुझे तिरछा छेदा गया था। चररर शब्द करती हुई मेरी त्वचा उतारी गयी थी। इस प्रकार मैंने अनंत दुःख पाया था। मैं परवशतासे मृगकी भाँति अनंत बार पाशमें पकडा गया था। परमाधामियोंने मुझे मगरमच्छके रूपमें जाल डालकर अनंत बार दुःख दिया था। बाजके रूपमें पक्षीकी भाँति जालमें बाँधकर मुझे अनंत बार मारा था। फरसा इत्यादि शस्त्रोंसे मुझे अनंत बार वृक्षकी तरह काटकर मेरे सूक्ष्म टुकड़े किये गये थे। जैसे लुहार घनसे लोहेको पीटता है वैसे ही मुझे पूर्व कालमें परमाधामियोंने अनंत बार पीटा था। ताँबे, लोहे और सीसेको अग्निसे गलाकर उनका उबलता हुआ रस मुझे अनंत बार पिलाया था। अति रौद्रतासे वे परमाधामी मुझे यों कहते थे कि पूर्व भवमें तुझे माँस प्रिय था, अब ले यह माँस । इस तरह मैंने अपने ही शरीरके खंड खंड टुकडे अनंत बार निगले थे। मद्यकी प्रियताके कारण भी मुझे इससे कुछ कम दुःख उठाना नहीं पडा । इस प्रकार मैंने महा-भयसे, महात्राससे और महादुःखसे कंपायमान काया द्वारा अनंत वेदनाएँ भोगी थीं। जो वेदनाएँ सहन करनेमें अति तीव्र, रौद्र और उत्कृष्ट कालस्थितिवाली हैं, और जो सुननेमें भी अति भयंकर हैं; वे मैंने नरकमें अनंत बार भोगी थीं। जैसी वेदना मनुष्यलोकमें है वैसी दीखती परन्तु उससे अनंत गुनी अधिक असातावेदना नरकमें थी। सभी भवोंमें असाता-वेदना मैंने भोगी है। निमेषमात्र भी वहाँ साता नहीं है।" इस प्रकार मृगापुत्रने वैराग्यभावसे संसार-परिभ्रमणके दुःख कह सुनाये। इसके उत्तरमें उसके मातापिता इस प्रकार बोले- "हे पुत्र ! यदि तेरी इच्छा दीक्षा लेनेकी है तो दीक्षा ग्रहण कर; २७
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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