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________________ भावनाबोध - निवृत्तिबोध स्नान करनेके योग्य है । प्रिय पुत्र ! निश्चय ही तू चारित्र पालनेके लिए समर्थ नहीं है। जीवन पर्यन्त इसमें विश्राम नहीं है। संयतिके गुणोंका महासमुदाय लोहेकी भाँति बहुत भारी है। संयमका भार वहन करना अति अति विकट है। जैसे आकाशगंगाके प्रवाहके सामने जाना दुष्कर है वैसे ही यौवनवयमें संयम महादुष्कर है। जैसे प्रतिस्रोत जाना दुष्कर है, वैसे ही यौवनमें संयम महादुष्कर है। भुजाओंसे जैसे समुद्रको तरना दुष्कर है वैसे ही यौवनमें संयम-गुणसमुद्र पार करना महादुष्कर है। जैसे रेतका कौर नीरस है वैसे ही संयम भी नीरस है। जैसे खड्ग-धारापर चलना विकट है वैसे ही तपका आचरण करना महाविकट है। जैसे सर्प एकांत दृष्टिसे चलता है, वैसे ही चारित्रमें ईर्यासमितिके लिए एकांतिक चलना महादुष्कर है। हे प्रिय पुत्र ! जैसे लोहेके चने चबाना दुष्कर है वैसे ही संयमका आचरण करना दुष्कर है। जैसे अग्निकी शिखाको पीना दुष्कर है, वैसे ही यौवनमें यतित्व अंगीकार करना महादुष्कर है। सर्वथा मंद संहननके धनी कायर पुरुषके लिये यतित्व प्राप्त करना तथा पालना दुष्कर है। जैसे तराजूसे मेरु पर्वतका तौलना दुष्कर है वैसे ही निश्चलतासे, निःशंकतासे दशविध यतिधर्मका पालन करना दुष्कर है। जैसे भुजाओंसे स्वयंभूरमणसमुद्रको पार करना दुष्कर है वैसे ही उपशमहीन मनुष्यके लिए उपशमरूपी समुद्रको पार करना दुष्कर है। हे पुत्र ! शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकारसे मनुष्यसंबंधी भोगोंको भोगकर भुक्तभोगी होकर तू वृद्धावस्थामें धर्मका आचरण करना।" मातापिताका भोगसंबंधी उपदेश सुनकर वे मृगापुत्र मातापितासे इस तरह बोल उठे "जिसे विषयकी वृत्ति न हो उसे संयम पालना कुछ भी दुष्कर नहीं है। इस आत्माने शारीरिक एवं मानसिक वेदना असातारूपसे अनंत बार सहन की है, भोगी है। महादुःखसे भरी, भयको उत्पन्न करनेवाली अति रौद्र वेदनाएँ इस आत्माने भोगी है। जन्म, जरा, मरण-ये भयके धाम हैं। चतुर्गतिरूप संसाराटवीमें भटकते हुए अति रौद्र दुःख मैंने भोगे हैं। हे गुरुजनों! मनुष्यलोकमें जो अग्नि अतिशय उष्ण मानी गयी है, उस अग्निसे अनंत गुनी उष्ण ताप-वेदना नरकमें इस आत्माने भोगी है। मनुष्यलोकमें जो ठंड अति शीतल मानी गयी है उस ठंडसे अनंत गुनी ठंड नरकमें इस आत्माने असातासे भोगी है। लोहमय भाजनमें ऊपर पैर बाँधकर और नीचे मस्तक करके देवतासे वैक्रिय की हुई धायँ धायँ जलती हुई अग्निमें आक्रंदन करते हुए इस आत्माने अत्युग्र दुःख भोगे हैं। महा दवकी अग्नि जैसे मरुदेशमें जैसी बालू है उस बालू जैसी वज्रमय बालू कदंब नामक नदीकी बालू है, उस सरीखी उष्ण बालूमें पूर्वकालमें मेरे इस आत्माको अनंत बार जलाया है। ___ आक्रंदन करते हुए मुझे पकानेके लिए पकानेके बरतनमें अनंत बार डाला है। नरकमें महारौद्र परमाधामियोंने मुझे मेरे कडवे विपाकके लिए अनंत बार ऊँचे वृक्षकी शाखासे बाँधा था। बान्धवरहित मुझे लम्बी करवतसे चीरा था। अति तीक्ष्ण काँटोंसे व्याप्त ऊँचे शाल्मलि वृक्षसे बाँधकर मुझे महाखेद दिया था। पाशमें बाँधकर आगे-पीछे खींचकर मुझे अति दुःखी किया था। २६
SR No.009959
Book TitleDrusthant Katha
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year
Total Pages67
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size17 MB
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