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________________ जैन मन्दिर : भारतीय वास्तुकला का इतिहास पहले स्तूपनिर्माण में, फिर गुफा-चैत्य और विहारों में और तत्पश्चात् मन्दिरों के निर्माण में पाया जाता है । इसीका अनुसरण करके प्रायः जैन मन्दिरों का भी निर्माण हआ । मन्दिरों के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण ग्यारहवीं शती के पश्चात् ही पाये जाते हैं । वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मन्दिर जिसकी सिर्फ रूपरेखा सुरक्षित है, वह है - दक्षिण भारत में बादामी के समीप ऐहोल का 'मेघुटी' नामक जैन मन्दिर । मन्दिरनिर्माण में तीन शैलियाँ पायी जाती हैं - नागर, द्राविड और वेसर । सामान्यत: नागरशैली उत्तरभारत में पायी जाती है । द्राविड शैली दक्षिण भारत में तथा वेसर शैली मध्य-भारत में पायी जाती है । हलेबीड का पार्श्वनाथ मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है । पार्श्वनाथ की चौदह फीट विशाल मूर्ति सप्नफणि नाग से युक्त है । हलेबीड मन्दिर के छत की चित्रकारी, पूरे भारत में सर्वोत्कृष्ट है । मध्य-भारत के देवगढ और खजुराहो के जैन मन्दिर विशेष लक्षणीय है । खजुराहो में जैन मन्दिरों की संख्या तीस से ऊपर है । मध्यप्रदेश के 'मुक्तागिरि' और 'सोनागिरि' के मन्दिर पहाडी घाटी के समतल भाग में स्थित है। नजदीक ही सात फीट ऊँचा जलप्रपात है । जोधपुर के समीप के ओसिया के, प्राचीन जैन और हिन्दु मन्दिर सुप्रसिद्ध है । मारवाड के सादडी ग्राम के समीप भी अनेक हिन्दु और जैन मन्दिर है। राजपुताने के गोडवाड जिले में ‘राणकपुर' का मन्दिर प्रसिद्ध है । यह विशाल चतुर्मुखी मन्दिर ४०,000 वर्गफीट भूमिपर बना हुआ है । इसमें २९ मण्डप है, जिनके स्तम्भों की संख्या ४२० हैं । आबु के जैन मन्दिर केवल जैन कला का ही नहीं, किन्तु भारतीय वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट विकसित रूप है । जनश्रुति के अनुसार इस मन्दिर के निर्माण में १८ करोड ५३ लाख सुवर्णमुद्राओं का व्यय हुआ । इस मन्दिर का निर्माण ग्यारहवीं सदी में हुआ । चालुक्य वंश के राजा भीमदेव के मन्त्री और सेनापति थे - 'विमलशाह' । पोरवाड वंशी विमलशाह ने इस अनुपमेय मन्दिर का निर्माण किया और उनके वंशजों ने दोतीन बार मन्दिर का पुनरुद्धार किया । संगमरवर से बने हुए इस मन्दिर का वर्णन करना सर्वथा अशक्य है । जो भी व्यक्ति इसे देखता है वह अतीव सौंदर्य की अनुभूति से अभिभावित होता है। आबूरोड स्टेशन के नजदीक 'दिलवाडाब नामक स्थान में स्थित ये जैन मन्दिर देखने के लिए पूरी दनियाभर से लोग आते रहते हैं जैन तीर्थों में सौराष्ट्र प्रदेश के शत्रुजय (पालीताणा) पर्वत पर जितने जैन मन्दिर हैं उतने अन्यत्र कहीं नहीं हैं । शत्रुजय-माहात्म्य नामके कई ग्रन्थ भी लिखे गये हैं । इन मन्दिरों में से सबसे प्राचीन मन्दिर 'विमलशाह'ने और कुछ महत्त्वपूर्ण मन्दिर गुजराथ नरेश कुमारपाल' ने बनवाये हैं। सौराष्ट्र का दूसरा महान तीर्थक्षेत्र ‘गिरनार' है । इस पर्वत का प्राचीन नाम 'ऊर्जयन्त' और रैवतकगिरि' है। कहा जाता है कि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने यहाँ तपस्या की थी । यहाँ का नेमिनाथ मन्दिर सबसे प्रसिद्ध, विशाल और सुन्दर है । जैन तीर्थक्षेत्रों में कुछ क्षेत्रों को 'सिद्धक्षेत्र' कहा गया है । अष्टापद (कैलास), चम्पा (बिहार), पावा (बिहार) और सम्मेदशिखर (बिहार), गजपन्थ और मांगीतुंगी (महाराष्ट्र) इत्यादि चौदह सिद्धक्षेत्र सुप्रसिद्ध है । दिगम्बर परम्परा में चौदह सिद्धक्षेत्रों को नमन करनेवाले स्तोत्र भी पाये जाते हैं । जैन मूर्तियाँ : जैनधर्म में मूर्तिपूजा सम्बन्धी उल्लेख प्राचीन काल से पाये जाते हैं । जैन अभ्यासकों का दावा है कि सिन्ध घाटी की खदाई में हडप्पा से प्राप्त मस्तकहीन मर्ती 'जैन मर्ती ही है। मथरा स्तप के भग्न जो मूर्तियाँ पायी गयी है वे मथुरा के संग्रहालय में सुरक्षित हैं । उसी संग्रहालय में कुषाणकालीन ४७ मूर्तियाँ सुरक्षित रखी है।
SR No.009956
Book TitleJainology Parichaya 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2013
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size304 KB
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