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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (33) तत्त्वार्थ सूत्र #***** अध्याय होनेवाली रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति दो प्रकार की होती है- आभ्यान्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति । उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण विशुद्ध आत्म प्रदेशों की इन्द्रियों के आकार रचना होने को आभ्यान्तर निर्वृत्ति कहते हैं। तथा उन आत्म प्रदेशों के प्रतिनियत स्थान में पुद्गलों की इन्द्रिय के आकार रचना होने को बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । निर्वृत्ति का उपकार करनेवाले पुद्गलों को उपकरण कहते हैं । उपकरण के भी दो भेद होते हैं- आभ्यान्तर और बाह्य । जैसे नेत्रों में जो काला और सफेद मण्डल है वह आभ्यान्तर उपकरण है और पलक वगैरह बाह्य उपकरण हैं ॥ १७ ॥ आगे भावेन्द्रिय का स्वरूप कहते हैं लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ||१८|| अर्थ - लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। इस लब्धि के होने पर ही जीव के द्रव्येन्द्रियों की रचना होती है; तथा लब्धि के निमित से आत्मा का जो परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं। विशेषार्थ - आशय यह है कि किसी जीव मे देखने की शक्ति तो है किन्तु उसका उपयोग दूसरी ओर होने से वह सामने स्थित वस्तु को भी नही देख सकता है। इसी तरह किसी वस्तु को जानने की इच्छा के होते हुए भी यदि क्षयोपशम न हो तो नही जान सकता । अतः ज्ञानवरण कर्म के क्षयोपशम से जो आत्मा में जानने की शक्ति प्रकट होती है वह तो लब्धि है और उसके होने पर आत्मा जो ज्ञेय पदार्थ की ओर अभिमुख होता है वह उपयोग है। लब्धि और उपयोग के मिलने से ही पदार्थों का ज्ञान होता है ॥ १८ ॥ इन्द्रियों के नाम निम्न प्रकार हैं स्पर्शन - रसन- घाण-चक्षुः श्रोत्राणि ||१९|| ******+++++41+++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय अर्थ- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियों के नाम हैं। विशेषार्थ - वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से तथा अंगोपांग नाम कर्म का उदय होने से आत्मा जिसके द्वारा पदार्थ को छू कर जानता है उसे स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं । जिसके द्वारा आत्मा रसको ग्रहण करता है उसे रसना इंद्रिय कहते हैं। जिसके द्वारा गन्ध को ग्रहण करता है उसे घ्राण इंद्रिय कहते हैं । जिसके द्वारा देखता है उसे चक्षु इंद्रिय कहते हैं और जिसके द्वारा सुनता है उसे श्रोत्र इंद्रिय कहते हैं ॥ १९ ॥ अब इन इन्द्रियों के विषय बतलाते हैं स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण-शब्दास्तदर्थाः ||२०|| अर्थ- स्पर्शन इंद्रियका विषय स्पर्श है। रसना इंद्रिय का विषय रस है । घ्राण इंद्रिय का विषय गन्ध है । चक्षु इंद्रिय का विषय रूप है और श्रोत्र इंद्रिय का विषय शब्द है। ऐसे ये पाँचों इंद्रियों के पाँच विषय हैं। प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने विषय को ही ग्रहण करती है, एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती ॥ २० ॥ शंका- मन उपयोग में सहायक है या नहीं? समाधान सहायक है, बिना मनकी सहायता के इंद्रियाँ अपने अपने विषयों में प्रवृत्ति नहीं करतीं । शंका- तो क्या मनका काम इतना ही है कि वह इंद्रियों की सहायता करे, या वह स्वयं भी कुछ जानता है ? आचार्य इसके समाधान के लिये सूत्र कहते हैं श्रुतमनिन्द्रियस्य ||२१|| अर्थ - अनिन्द्रिय अर्थात् मन और श्रुत अर्थात् श्रुतज्ञान का विषयभूत पदार्थ । श्रुत ज्ञान का विषयभूत पदार्थ मनका विषय है । अर्थात् +++++++++++42+++++++++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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