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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (34) (तत्त्वार्थ सूत्र #############अध्याय : श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर मन की सहायता से ही आत्मा श्रुतज्ञान के विषय को जानता है। अतः श्रुतज्ञान का होना मन का प्रमुख काम है। अपने इस काम में वह किसी इन्द्रिय की सहायता नहीं लेता ॥२१॥ अब स्पर्शन इन्द्रिय किसके होती है सो बतलाते हैं वनस्पत्यन्तानामेकम् ||२|| अर्थ - पृथिवी कायसे लेकर वनस्पति काय पर्यन्त जीवो के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है ॥२२॥ आगे शेष इन्द्रियों के स्वामियों को बतलाते हैंकृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ||१३|| अर्थ- कृमि आदि के एक एक इन्द्रिय अधिक होती है। अर्थात लट, शंख, जोंक वगैरह के स्पर्शन और रसना, ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। चींटी, खटमल वगैरह के स्पर्शन, रसना, धाण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं । भौंरा, मक्खी , डाँस मच्छर वगैरह के स्पर्शन, रसना, ध्राण और चक्षु ये चार इन्द्रिया होती हैं । और मनुष्य, पशु, पक्षी, वगैरह के पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं ॥ २३ ॥ अब संज्ञी जीव का स्वरूप बतलाते हैं संज्ञिन: समनस्काः ||२४|| अर्थ- मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं अतः मन रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं । एकेन्द्रिय,दो इन्द्रिय,ते इन्द्रिय,चौ इन्द्रिय जीव तो सब असंज्ञी ही होते हैं। पंचेन्द्रियों मे देव, नारकी और मनुष्य संज्ञी ही होते हैं किन्तु तिर्यंच मन रहित भी होते हैं। शंका - मन का काम हित और अहित की परीक्षा करके हित को गहण करना और अहित को छोड देना है। इसीको संज्ञा कहते हैं । अतः तत्त्वार्थ सूत्र * *********अध्याय - जब संज्ञा और मन दोनों का एक ही अभिप्राय है तो संज्ञी और समनस्क का मतलब भी एक ही है। फिर सत्र मे दोनों पद क्यों रखे? केवल 'संज्ञिनः' कहने से भी काम चल सकता है। समाधान - यह आपत्ति ठीक नही है। क्योकि प्रथम तो संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ हैं-संज्ञा नाम को भी कहते हैं। अतः जितने नामवाले पदार्थ हैं वे संज्ञी कहलायेंगे। संज्ञा ज्ञान को भी कहते हैं और ज्ञान सभी जीवों में पाया जाता है। अत:सभी संज्ञी कहे जायेंगे । भोजन वगैरह की इच्छा का नाम भी संज्ञा है जो सभी जीवों मे पायी जाती है। अतः सभी संज्ञी हो जायेंगे । इसलिए जिसके मन है उसी को संज्ञी कहना उचित है। दूसरे, गर्भ अवस्था में, मूर्छित अवस्था में, सुप्त अवस्था में, हित-अहित का विचार नहीं होता, अतः उस अवस्था में, संज्ञी जीव भी असंज्ञी कहे जायेंगे । किन्तु मन के होने से उस समय भी वे संज्ञी ही हैं। अतः संज्ञी और समन्स्क दोनों पदों को रखना उचित है ॥२४॥ शंका-जिस समय जीव पूर्व शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करने के लिए जाता है उस समय उनके मन तो रहता नहीं है। फिर वह कैसे गमन करता है? इस शंका का समाधान करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं विग्रहगतौ कर्मयोगः ||२७|| अर्थ- 'विग्रह' शब्द के दो अर्थ हैं । विग्रह अर्थात् शरीर; शरीर के लिए गमन करने को विग्रहगति कहते हैं । अथवा विरुद्ध ग्रहण करने को विग्रह कहते हैं । इसका आशय यह है कि संसारी जीव हमेशा कर्म और नोकर्मको ग्रहण करता रहता है, किन्तु विग्रहगति में पुद्गलों का तो ग्रहण होता है, नोकर्म पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता । इसलिए उसको विरुद्ध ग्रहण कहा है। और विरुद्ध ग्रहण पूर्वक जो गमन होता है उसे विग्रह गति कहते हैं । तथा कार्मण शरीर को कर्म कहते हैं । उस कार्मण
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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