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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (32) (तत्वार्थ सूत्र ***** *****अध्याय - आगे संसारी जीव के और भी भेद बतलाते हैं संसारिणससस्थावराः ||१|| अर्थ-संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जिसके त्रस नाम कर्म का उदय होता है वह जीव त्रस कहलाता है और जिसके स्थावर नाम कर्म का उदय होता है वह जीव स्थावर कहलाता है। विशेषार्थ-कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जो चलें फिरें वे त्रस हैं और जो एक ही स्थान पर ठहरे रहें वे स्थावर हैं। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से जो जीव गर्भ में है या अण्डे में है या चुपचाप पडे सोते हैं अथवा मूर्छित पड़े हैं वे त्रस नहीं कहे जा सकेंगे । तथा हवा आग और पानी स्थावर हैं किन्तु इनमें हलन-चलन वगैरह देखा जाता है अतः वे त्रस कहे जायेंगे । इसलिए चलने और ठहरे रहने की अपेक्षा त्रस स्थावरपना नहीं है किन्तु त्रस और स्थावर नाम कर्म की अपेक्षा से ही है। इस सूत्र में भी त्रस शब्द को स्थावर से पहले रखा है क्योंकि बस स्थावर से पूज्य है तथा अल्प अक्षर वाला भी है ॥१२॥ स्थावर का अधिक कथन नहीं है। इसलिए सूत्रकार क्रम का उल्लंघन करके त्रस से पहले स्थावर के भेद कहते हैं पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पतय:स्थावराः ||१३|| अर्थ-पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर हैं। इन स्थावर जीवों के चार प्राण होते हैं- स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । विशेषार्थ- आगम में इन पाँचों स्थावरों में से प्रत्येक के चार-चार भेद बतलाये हैं। जैसे, पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव । जो स्वयं ही बनी हुई अचेतन जमीन है उसे पृथिवी कहते हैं। जिस पृथिवी में से जीव निकल गया उसे पृथिवी-काय कहते हैं । जीव सहित तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - पृथिवी को पृथिवीकायिक कहते हैं । जो जीव पहले शरीर को छोड़कर पृथिवीकाय में जन्म लेने के लिए जा रहा है, जब तक वह पृथिवी को अपने शरीर रूपसे ग्रहण नहीं कर लेता, तब तक उस जीव को पथिवी जीव कहते हैं । इसी तरह अप् (जल) तेज, वगैरह के भी भेद जान लेने चाहिए ॥१३॥ अब त्रसके भेद कहते हैं दीन्द्रियादयससा: ||१४|| अर्थ- दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चोइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। दो इन्द्रिय जीव के छह प्राण होते हैं- स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ, कायबल, वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । तेइन्द्रिय के एक घ्राणेन्द्रिय के बढ़ जाने से सात प्राण होते हैं । चौइन्द्रिय के एक चक्षु इन्द्रिय के बढ़ जाने से आठ प्राण होते हैं। पंचेन्द्रिय असैनीके एक श्रोत्र इन्द्रिय के बढ़ जाने से नौ प्राण होते हैं। और सैनी पंचेन्द्रिय के मनो-बल के बढ़ जाने से दस प्राण होते हैं ॥१४॥ अब इन्द्रियों की संख्या बतलाते हैं पंञ्चेन्द्रियाणि ||१७|| अर्थ- इन्द्रियाँ पांच होती हैं ॥ १५ ॥ इन इन्द्रियों के भेद कहते हैं द्विविधानि ||१६|| अर्थ-इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय॥१६॥ अब द्रव्येन्द्रिय का स्वरूप कहते हैं निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ||१७|| अर्थ-निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । कर्म के द्वारा
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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