SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D:IVIPUL\BO01.PM65 (31) (तत्वार्थ सूत्र अध्याय) दर्शनोपयोग के चार भेद हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। विशेषार्थ- दर्शन और ज्ञान में साकार और अनाकार का भेद है। पदार्थ का आकार न लेकर जो सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शन है। क्योंकि एक पदार्थ से हटकर जब आत्मा दूसरे पदार्थ को जानने को अभिमुख होता है तो पदार्थ और इन्द्रिय का सम्बन्ध होते ही वस्तु के आकार वगैरह का ग्रहण नहीं होता । अतः दर्शन निराकार है। उसके पश्चात पदार्थ के आकार वगैरह के जानने को ज्ञान कहते हैं। छद्मस्थ के तो दर्शन के पश्चात् ज्ञान होता है; क्योंकि छास्थ पदार्थों को क्रम से जानता है, किन्तु केवली भगवान के दर्शन और ज्ञान दोनों एक साथ होते हैं। दर्शन और ज्ञान में ज्ञान प्रधान है इसलिए सूत्र में उसके भेद पहले गिनाये हैं। शंका - जैसे अवधि ज्ञान के पहले अवधि दर्शन माना है वैसे ही मनःपर्यय ज्ञान के पहले मनःपर्यय दर्शन क्यों नहीं माना ? समाधान -प्रथम तो आगम में दर्शनावरण कर्म के भेदों में मनःपर्यय दर्शनावरण नाम का कोई भेद नहीं गिनाया । जिसके क्षयोपशम से मनःपर्यय दर्शन हो । दूसरे, मनःपर्यय ज्ञान अपने विषय की अवधि ज्ञान की तरह सीधा ग्रहण नहीं करता । किन्तु मन का सहारा पाकर ग्रहण करता है। अत: जैसे मन अतीत और अनागत पदार्थ का विचार ही करता है। वैसे ही मन:पर्यय ज्ञान भी अतीत अनागत को जानता ही है । तथा वर्तमान पदार्थ को भी विशेष रूप से ही जानता है। तथा मन के निमित्त से होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् मनःपर्यय ज्ञान होता है। इसलिए भी मनःपर्यय दर्शन आवश्यक नहीं है ॥९॥ आगे जीव के भेद बतलाते हैं संसारिणो मुक्ताश्व ||१०|| अर्थ- जीव दो प्रकारके हैं - संसारी और मुक्त। तत्त्वार्थ सूत्र ******* अध्याय : विशेषार्थ-संसार का मतलब चक्कर लगाना है। उसीको परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन पाँच प्रकार का होता है- द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन । कर्म और नोकर्म पुद्गलों को अमुक क्रम से ग्रहण करने और भोगकर छोड़ देने रूप परिभ्रमण का नाम द्रव्य परिवर्तन है। लोकाकाश के सब प्रदेशों में अमुक क्रम से उत्पन्न होने और मरने रूप परिभ्रमण का नाम क्षेत्र परिवर्तन है। क्रमवार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में जन्म लेने और मरने रूप परिभ्रमण का नाम काल परिवर्तन है। नरकादि गतियों में बार-बार उत्पन्न होकर जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त सब आयु को भोगने रूप परिभ्रमण का नाम भव परिवर्तन है। इतना विशेष है कि देव गति में इकतीस सागर तक की ही आयु भोगनी चाहिए । सब योगस्थानों और कषाय स्थानों के द्वारा क्रम से ज्ञानावरण आदि सब कर्मों की जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति को भोगने रूप परिभ्रमण को भाव परिवर्तन कहते हैं । संक्षेप में यह पाँच परिवर्तनों का निर्देश मात्र है । इस पंच परिवर्तन रूप संसार से जो जीव छूट जाते हैं वे मुक्त कहलाते है । संसारी पूर्वक हो मुक्त जीव होते हैं। इसलिए सूत्र में संसारी को पहले रक्खा है॥१०॥ अब संसारी जीव के भेद कहते हैं समनस्काडमनस्का : ।19911 अर्थ-संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- मन सहित और मन रहित। मन सहित जीवों को संज्ञी कहते हैं। संज्ञी जीव शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, बुलाने पर आ जाते हैं और इशारे वगैरह को समझ लेते हैं। मन रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं। असंज्ञी जीव शिक्षा उपदेश वगैरह ग्रहण नहीं कर सकते । इससे अमनस्क को सूत्र में पीछे रक्खा और समनस्क को पहले रक्खा है॥११॥
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy