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________________ D:IVIPULIBO01.PM65 (30) (तत्त्वार्थ सूत्र ****** *अध्याय :D समाधान - इन सबका अन्तर्भाव इन्हीं इक्कीस भावों में हो जाता है। दर्शनावरण के उदय से होनेवाले अदर्शन वगैरह का अन्तर्भाव मिथ्यादर्शन में किया है । हास्य वगैरह वेद के साथी हैं अतः उन्हें वेद में गर्भित कर लिया है । वेदनीय, आयु और गोत्र के उदयसे होने वाले भावों का अन्तर्भाव गति में कर लिया है। क्योंकि गति के ग्रहण से अघातिया कर्म के उदय से होनेवाले भाव ले लिए गये हैं। इसी प्रकार अन्य भावों का भी अन्तर्भाव कर लेना चाहिये ॥६॥ अब पारिणामिक भाव के तीन भेद बतलाते हैं जीव-भव्याभव्यत्वानि च ||७|| अर्थ- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। ये भाव जीव के सिवा अन्य द्रव्यों में नहीं होते। तथा इनके होने में किसी कर्म का उदय वगैरह भी कारण नहीं है। अतः ये असाधारण पारिणामिक भाव कहलाते हैं। वैसे साधारण पारिणामिक भाव तो अस्तित्व, नित्यत्व, प्रदेशत्व आदि बहुत से हैं, किन्तु वे भाव अन्य अजीव द्रव्यों में भी पाये जाते हैं । इसीलिए उनको "च" शब्द से ग्रहण कर लिया है । जीवत्व नाम चैतन्य का है । चैतन्य जीव का स्वाभाविक गुण है। इसलिए यह पारिणामिक है। जिसमें सम्यग्दर्शन आदि परिणामों के होने की योग्यता है वह भव्य है और जिसमें वैसी योग्यता का अभाव है वह अभव्य है। ये दोनों बातें भी स्वाभाविक ही हैं । जैसे जिन उड़द, मूंग वगैरह में पकने की शक्ति होती हैं, वे निमित्त मिलने पर पक जाते हैं और जिनमें वह शक्ति नहीं होती वे कितनी ही देर पकाने पर भी नहीं पकते । यही दशा जीवों की है॥७॥ इस तरह जीव के पाँच भाव होते हैं। शंका - जीव के ये भाव नहीं हो सकते; क्योंकि ये भाव कर्मबंध की अपेक्षा से बतलाये हैं । और आत्मा अमूर्तिक है, अत: अमूर्तिक तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - आत्मा मूर्तिक कर्मों से नहीं बंध सकता। समाधान - आत्मा एकान्त से अमूर्तिक ही नहीं है किन्तु मूर्तिक भी है। कर्मबन्ध की अपेक्षा से तो मूर्तिक है, क्योंकि अनादि काल से संसारी आत्मा कर्म पुद्गलों से दूध-पानी की तरह मिला हुआ है, कभी भी कर्म से जुदा नहीं हुआ। तथा शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से अमर्तिक है. क्योंकि यद्यपि कर्म और आत्मा दूध और पानी की तरह एक हो रहे हैं फिर भी अपने चैतन्य स्वभाव को छोडकर आत्मा कभी भी पद्गलमय नहीं हो जाता अतः अमूर्तिक है। शंका - जब संसार अवस्था में आत्मा कर्म पुद्गलों के साथ दूधपानी की तरह मिला हुआ है तो उसको हम कैसे जान सकते हैं कि यह आत्मा है? समाधान - बंध की अपेक्षा से आत्मा और पुद्गल मिले होने पर भी दोनों के लक्षण भिन्न भिन्न हैं । उस लक्षण से आत्माकी पहचान हो सकती है। इसीलिए सूत्रकार जीव का लक्षण बतलाते हैं। उपयोगो लक्षणम् ||८|| अर्थ-जीव का लक्षण उपयोग है । चैतन्य के होने पर ही होने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं । यह उपयोग सब जीवों में पाया जाता है और जीव के सिवा अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता ॥८॥ अब उपयोग के भेद कहते हैं स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद: ||९|| अर्थ-वह उपयोग दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान और कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान । तथा * * ॐ * *
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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