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________________ ( २६ ) सहजानन्दशास्त्रमालायां व्यापक सम्बन्ध नहीं है याने जीव में न कर्म व्याप्य है और कर्म में न जीव व्याप्य है । फिर जीव व कर्ममें कर्नाकर्मभाव कैसे हो सकता है। ७२ - जैसे समुद्र की तरङ्गवाली अवस्था में समुद्र ही अन्तर्व्यापक है, वहां समुद्र ही निश्चयसे अपने आपको तरङ्गवाला कर रहा है। उसी प्रकार जीव की संसार अवस्था में जीव ही अन्तर्व्यापक है, वहां जीव ही निश्चयसे अपने आपको संसारी कर रहा है । ७३ - तथैव जैसे समुद्र और हवा जुदे जुदे पदार्थ होनेसे इनमें भाव्यभावक भाव सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का अनुभवन नहीं कर सकता । अतएव समुद्रको सतरङ्ग अवस्थाका हवा भोक्ता नहीं है अथवा हवाकी अवस्थाका समुद्र भोक्ता नहीं है । इसी प्रकार जीव और पुद्गलकर्म जुदे जुदे पदार्थ होने से इनमें भाव्यभावक भाव सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थका अनुभवन नहीं कर सकता | अतएव जीव की संसारावस्थाका कर्म भोक्ता नहीं है व कर्मी उदयादि अवस्थाका जीव भोक्ता नहीं है । ७४ - जैसे समुद्रकी सतरङ्ग व निस्तन अवस्थाका अनुभवन समुद्र में ही है, अतः समुद्र ही अपने आपको वहां सतरङ्ग श्रथवा निस्तरङ्ग 'अवस्थामय अनुभवता हुआ याने वर्तना हुआ अपने को ही भोगता है, अनुभवता है । ऐसा भी भेद दृष्टि में प्रतीत होता है। वैसे ही जीवकी ससंसार व निःसंसार अवस्थाका अनुभवन जीवमे ही है, अतः जीव ही अपने आपको वहां ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामय अनुभवता हुआ, वर्तना हुआ अपनेको भोक्ता है। ऐसा भी भेददृष्टि में प्रतीत होता है । अन्यको तो कोई अनुभवता ही नहीं है । ७५ - प्रश्न - यदि एक द्रव्यकी दूसरे द्रव्यके साथ कुछ भी बात नहीं है तो समुद्रकी चर्चा हवाके साथ क्यों दिखाई अथवा जीव की चर्चा कर्मके साथ क्यों दिखाई ? उत्तर- जैसे मिट्टी ही कलशमें व्यापक है, अतः निश्चयतः कलश मिट्टी के द्वारा ही किया गया है और मिट्टीके ही द्वारा गया है। तो भी इनमें निमित्तनैमित्तिकभाव भी तो है अथवा
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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