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________________ थक कर्माधिकारः ( २७ ) • हा व्याप्यव्यापकभाव भी तो है याने कलशकी उत्पत्ति के अनुकूल व्यापारका करने वाला कुम्हार है और क्लशके उपयोगसे संतोषको अनुभवने वाला कुम्हार है। इस व्यावहारिक वातको देखकर यह प्रसिद्ध हुआ है कि कुम्हार कलशको करता है व भोगता है । इसी प्रकार जीव ही अपने विकल्प आदि परिणाममे व्यापक है, अतः निश्चयतः जीवका परिणाम जीवके द्वारा किया गया है और जीवके द्वारा ही अनुभवा गया है । तो भी इनमें निमित्तनैमित्तिक भाव भी तो है अथवा वाह्य व्याप्यव्यापक भाव भी तो है याने पुद्गल कर्मकी उत्पत्ति के अनुकूल परिणाम का करने वाला जीव है और पुद्गल कर्मके विपाकसे हुए सुख दुःख परिणामको भोगने वाला जीव है । इस व्यावहारिक वातको देखकर यह प्रसिद्ध हुआ कि जीव पुद्गल कर्मको करता है व भोगता है । ७६ - अथवा, जैसे मिट्टी के आश्रय विना कुम्हारका व्यापार वहां नहीं है और कुम्हारकी तृप्ति में भी वह निमित्त आश्रय अथवा विषय पड़ा है, अतः व्यवहार से कहा जाता है कि मिट्टी कलशने कुम्हारका व्यापार कराया व कुम्हारको तृप्त कराया। वैसे ही कर्मके विपाक विना जीवमें विभाव नहीं हुआ और सुख दुःखका अनुभव भी नहीं हुआ, अतः व्यवहारसे कहा जाता है कि कर्मने जीवका भाव बनाया और सुख दुःख को भुगाया । किन्तु, वास्तव में (वस्तुत्वमे) वात ऐसी नहीं है । -यदि जीव पुद्गल कर्मको करे अथवा भोगे तो यह आपत्ति बन जावेगी कि एक द्रव्यने दो द्रव्यकी क्रिया कर दी। किन्तु ऐसा कभी भी नहीं होता और न ऐसा भगवानने निर्दिष्ट किया है । जैसे कुम्हार तो अपना ही व्यापार करता है और अपना ही परिणाम भोगता है, क्यों ! कुम्हारका परिगमन कुम्हारके परिणामसे अभिन्न है और कुम्हारका परिणाम कुम्हारसे अभिन्न है, अतः कुम्हार मात्र अपने परिणमनको ही कर सकता है व भोग सकता है, कलशके परिणमनको नहीं, क्योंकि वह अन्य द्रव्य है । इसी प्रकार आत्माकी क्रिया आत्मा के परिणामसे अभिन्न है और आत्माका परिणाम आत्मासे अभिन्न है, अतः आत्मा मात्र -65
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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