SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ क कर्माधिकारः (२५) करता है और न कर्म जीवके गुणमें कुछ करता है। जैसे कि कुम्हारके व्यापारको निमित्त (आश्रय) पाकर मृत्कलश परिणमन होता है और उस मुत्पिण्डको निमित्त (आश्रय) पाकर कुम्हारका व्यापार होना है, फिर भी मृत्पिण्ड कुम्हारके गुणको नहीं करता है और न कुम्हार मृरिपिएडके गुण को करता है तथा न तो मृत्पिण्ड कुम्हारके गुणमे कुछ करता है और न कुम्हार मृत्पिण्डके गुणमें कुछ करता है । ६८-जैसे मिट्टीके द्वारा कलशका करना होता है, वैसे ही जीवके द्वारा उस जीवका भाव ही करनेमे आता है। इस कारण जीव अपने भावका कर्ता कहा जा सकता है, अन्य द्रव्यके भावका को नहीं। ६६-जैसे कि मिट्टी द्वारा वस्त्रका करना नहीं हो सकता, अतः मिट्टी वस्त्रका कर्ता किसी भी प्रकार नहीं है वैसे ही जीवके द्वारा पुद्गल का करना किसी भी प्रकार नहीं होता, अतः जीव पुद्गलका कर्ता कभी नहीं होता, क्योकि अपने भावसे परका भाव किया ही नहीं ना सकता। ७०-वस्तुकी प्रकृतिके कारण प्रत्येक वस्तु मात्र अपने ही परिणमनका कर्ता होता और भोक्ता होता है । जैसे कि किसी भी व्यापार में रहने वाला कुम्हार मात्र अपने ही परिणमनका कर्ता होता और भोक्ता होता है। ७१-जैसे कि हवाके चलने के निमित्तसे समुद्र तरङ्गित हो जाता है और हवा न चलनेके निमित्तसे समुद्र निस्तरङ्ग हो जाता है। ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेपर भी हवा व समुद्र में व्याप्यव्यापक भाव नहीं है, याने समुद्र में न हत्रा व्याप्य है और न हवामें समुद्र व्याप्य है अथवा समुद्र हवाके स्वरूपको ग्रहण नहीं करता और न हवा समुद्रके स्वरूपको ग्रहण करती है। फिर हवा व समुद्र में कर्ताकर्म भाव कैसे हो सकता है । इस प्रकार कर्मके उदयके सद्भावको निमित्त पाकर जीव संसारी होता है और कर्मके उदयके असद्भावको अर्थात् कर्मके अभावको निमित्त पाकर जीव मुक्त होता है, तो भी जीवका कर्मके साथ व्याप्य
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy