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________________ तृतीय खण्ड। [५६ ११ पूर्व संस्तुति दोप-दातारके सामने भोजनके पहले स्तुति करे तुम तो महादानी हो, राजा श्रेयांशके समान हो अथवा तुम तो पहले बड़े दानी थे अब क्यों दान करना भूल गए ऐसा कहकर भिक्षा ले। १२ पश्चात्संस्तुति दोप-दान लेनेके पीछेदातारकी स्तुति करे तुम तो बड़े दानी हो, जैसा तुम्हारा यश सुना था वैसे ही तुम हो। - १३ विद्या दोप-जो साधु दातारको विद्या साधन करके किसी कार्यकी आशा दिलाकर व उसको विद्या साधन बताकर उसके माहात्म्यसे आहार दान लेवे सो विद्या दोष है वा कहे तुम्हें ऐसीर विद्याएं दूङ्गा यह आशा दिलावे । १४ मंत्र दोप-मंत्रके पढ़ते ही कार्य सिद्ध होजायगा मैं ऐसा मंत्र दृङ्गा । इस तरह आशा दिलाकर दातारसे भोजन ग्रहण करे । सो मंत्र दोप है। ऊपरके १३ व १४ दोपमें यह भी गर्मित है कि जो कोई पात्र दातारोंके लिये विद्या या मंत्रकी साधना करे । १५ चूर्ण दोष-पात्र दातारकी चक्षुओंके लिये अंजन व शरीरमें तिलकादिके लिये कोई चूर्ण व शरीरकी दीप्ति आदिके लिये कोई मसाला बताकर भोजन करे सो चूर्ण दोष है । यह एक तरहकी आजीविका गृहस्थ समान होजाती है इससे दोष है। १६ मूल दोष-कोई वश नहीं है उसके लिये वशीकरणके व कोईका वियोग है उसके संयोग होनेके उपायोंको वताकर जो दातारसे भोजन ग्रहण करे सो मूल दोप है । अब १० तरह शंकित व अशन दोष कहे जाते हैं ।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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