SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड ।. [४ हितकारी वचन बोलते हैं व जो सर्व संकल्पोंसे रहित हैं वे क्यों नहीं मोक्षके पात्र होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ७ ॥ उत्थानिका- आगे यह कहते हैं कि द्रव्य और भावलिंगोंको ग्रहणकर तथा पहले पंच आचारका स्वरूप कहा गया है उसको इस समय स्वीकार करके उस चारित्र आधारसे अपने खरूपमें तिष्ठता है वही श्रमण होता है मोक्षार्थी इन दोनों भावि नैगमनयसे जो आदाय तंपि लिंग गुरुणा परमेण तं नर्मसित्ता । सोचा किरि उद्विदो होदि सो समणो ॥ ७॥ आदाय तदपि लिङ्ग गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य । ear सतं क्रियामुपस्थितो भवति स भ्रमणः ॥ ७ ॥ अन्य सहित सामान्यर्थः- (परमेण गुरुणा) उत्कृष्ट गुरुसे ( तंपि लिंग) उस उभय लिंगको ही ( आदाय ) ग्रहण करके फिर (तं णमंसित्ता) उस गुरुको नमस्कारके तथा ( सवदं किरियं ) व्रत सहित क्रियाओंको ( सोच्चा ) सुन करके ( उवट्टिदो ) मुनि मार्ग में तिष्ठता हुआ (सो) वह सुमुक्षु (समणो ) सुनि (हवदि) होजाता है। विशेषार्थ - दिव्यध्वनि होने के कालकी अपेक्षा परमागमका उपदेश करनेरूपसे अर्हत् भट्टारक परमगुरु हैं, दीक्षा लेनेके कालमें दीक्षादाता साधु परमगुरु हैं । ऐसे परमगुरु द्वारा दी हुई द्रव्य और भाव लिंगरूप मुनिकी, दीक्षाको ग्रहण करके पश्चात् उसी गुरुको नमन करके उसके पीछे व्रतोंके ग्रहण सहित बृहत् प्रतिक्रमण क्रियाका वर्णन सुनकरके भलेप्रकार स्वस्थ होता हुआ वह पूर्व में कहा हुआ तपोधन अब श्रमण होजाता है |
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy