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________________ ४०] श्रीप्रवचनसारटीका । मार्ग है इसीसे कर्मोकी निर्जरा होती है । पांचवा विशेपण यह है कि मुनिका भाव जिन सम्बन्धी होता है अर्थात् जैसा तीर्थकरोंका मुनि अवस्था में भाव था वैसा भाव होता है अथवा जिन आगममें नो साधुके योग्य भावोंका रहस्य कहा है उससे परिपूर्ण होता है । ऐसे द्रव्य और भाव लिंगधारी साधु ही सच्चे जैनके साधु हैं। श्री देवसेन आचार्यने तत्त्वसारमें कहा है:-- बहिरमंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविहजोएण । सो णिनगंथो भणिओ जिणलिंगसमासिओ सघणो ॥१०॥ लाहालाहे सरिसो सुहदुक्खे तह य जीविए मरणे । बन्धो अरयसमाणो माणसमत्थो हु सो जाई ॥ ११ ॥ भावार्थ-मिसने बाहरी और भीतरी परीग्रहको मन वचन काय तीनों योगोंसे त्याग दी है वह गिनचिन्हका धारी मुनि निग्रंथ कहा गया है। जो लाभ हानिमें, सुख दुःखमें, जीवन मरणमें बंधु शत्रुमें समान भावका धारी है वही योगी ध्यान करनेको समर्थ है। ___ श्री गुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनमें साधुओंका स्वरूप इसतरह बताया हैसमधिगतसमस्ताः सर्वसावधदूराः । स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचारा.स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः। कमिह न विमुक्तभोजनं ते विमुक्ताः ॥२२६॥ भावार्थ-जो विरक्त साधु सर्व शास्त्रके भलेप्रकार ज्ञाता हैं, जो सर्व पापोंसे दूर हैं, जो अपने आत्महितमें चित्तको धारण किये हुए हैं, जो शांतभाव सहित सर्व आचरण करते हैं, जो स्वपर
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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