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________________ ४२] श्रीप्रवचनसारटोका। विस्तार यह है कि पूर्वमें कहे हुए द्रव्य और भाव लिंगको धारण करनेके पीछे पूर्व सूत्रोंमें कहे हुए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्यरूप पांच आचारोंका आश्रय करता है । फिर अनन्त ज्ञानादि गुणोंका स्मरणरूप भाव नमस्कारसे तैसे ही उन गुणोंको कहनेवाले वचन रूप द्रव्य नमस्कारसे गुरु महाराजको नमस्कार करता है। उसके पीछे सर्व शुभ व अशुभ परिणामोंसे निवृत्तिरूप अपने स्वरूपमें निश्चलतासे तिष्ठनेरूप परम सामायिकव्रतको स्वीकार करता है। मन,वचन,काय, कत, कारित, अनुमोदनासे तीन जगत तीन कालमें भी सर्व शुभ अशुभ कर्मोंसे भिन्न जो निन शुद्ध आत्माकी परिणतिरूप लक्षणको रखनेवाली क्रिया उसको निश्चयसे वृहत् प्रतिक्रमण क्रिया कहते हैं। व्रतोंको धारण करनेके पीछे इस क्रियाको सुनता है, फिर विकल्प रहित होकर कायका मोह त्यागकर समाधिके वलसे कायोत्सर्गमें तिष्ठता है। इस तरह पूर्ण मुनिकी सामग्री प्राप्त होनेपर वह पूर्ण श्रमण या साधु होजाता है यह अर्थ है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने मुनि होनेकी विधिको संकोच करके कहा है कि जो मुनिपद धारनेका उत्साही होता है वह किसी दीक्षा देने योग्य गुरुकी शरणमें जाता है और उनकी आज्ञासे वस्त्राभूषण त्याग, सिर आदिके केशोंको उखाड़, नग्न मुद्राधार मोर पिच्छिका और कमण्डलु ग्रहण करके द्रव्यलिंगका धारी होता है। अन्तरङ्गमें पांच महाव्रत, पांच समिति तथा तीन गुप्तिका अवलंबन करके भाव लिंगको स्वीकार करता है, पश्चात् दीक्षादाता गुरुमें परम भक्ति रखता हुआ उनको भाव सहित नमस्कार करता है ।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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