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________________ तृतीय खण्ड। [३६ पांचवां विशेषण यह है कि मुनिका द्रव्यलिंग प्रतिकर्म रहित होता है। मुनि महाराज अपने शरीर की जरा भी शोभा नहीं चाहते हैं इसी लिये दतौन नहीं करते, स्नान नहीं करते, उसे किसी भी तरह भूपित नहीं करते हैं । इस तरह से पांच विशेषण द्रव्यलिंगके हैं वैसे ही पांच विशेषण भाव लिंगके हैं। मुनि महाराजका भाव इस भावसे रहित होता है कि निज आत्माके सिवाय कोई भी परवस्तु मेरी है। उनको सिवाय निन शुद्ध भावके और सब भाव हेय झलकते हैं, न उनके भावोंमें असि मसि आदि व चूल्हा नक्की आदि आरम्भ करनेके विचार होते हैं इसलिये उनका भाव मूर्छा और आरम्भ रहित होता है । ४६ दोप ३२ अन्तराय टालकर भोजन करूँ ऐसा उनके नित्य विचार रहता है । दूसरा विशेषण यह है कि उनके उपयोग और योगकी शुद्धि होती है। उपयोगकी शुद्धिसे अर्थ यह है कि वे अशुभोपयोग और शुभोपयोगमें नहीं रमते, उनकी रमणता रागद्वेष रहित साम्यभावमें अर्थात् शुद्ध आत्मीक भावमें होती है। योगकी शुद्धिसे मतलब यह है कि उनके मनवचन फाय थिर हों और वे ध्यानके अभ्यासी हों। उनके योगोंमें कुटिलता न होकर ध्यानकी अत्यन्त आशक्तता हो । तीसरा विशेषण यह है कि उनका भाव परकी अपेक्षा रहित होता है। अर्थात् भावोंमें स्वात्मानुभवकी तरफ ऐसा झुकाव है कि वहां परद्रव्योंके आलम्बनकी चाह नहीं होती है-वे नित्य निजानन्दके भोगी रहते हैं। चौथा विशेष यह है कि मुनिका भाव मोक्षका साक्षात् कारण रूप अभेद रत्नत्रयमई होता है । भावोंमें निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यरज्ञान व निश्चय सम्यक् चारित्रकी तन्मयता रहती है यही मुक्तिका
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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