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________________ ३८] श्रीप्रवचनसारटोका । अनगारधर्मामृतमें भी कहा है:लोचो चित्रिचतुर्मासरो मध्योधमः स्यात् ।। लघुप्राग्भक्तिभिः कार्यः सोपवासप्रतिक्रमः ॥ ८६ १०६ लोच दो, तीन, चार मासमें उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य होता है। सो लोचके पहले लघु सिद्धभक्ति और योग भक्ति करे, पूरा करके भी लघु भक्ति करे। प्रतिक्रमण तथा उपवास भी करे। तीसरा विशेषण द्रव्य लिंगका शुद्ध है। जिससे यह भाव झलकता है कि उनका शरीर निर्मल आकृतिको रखता है-उसमें वक्रता व कषायका झलकाव' नहीं होता है। जहां परिणामोंमें मैल होता है वहां मुख आदि बाहरी अंगोंमें भी मैल या कुटिलता झलकती है। साधुके निर्मल भाव होते हैं इसलिये मुख आदि अङ्ग उपंगोंमें सरलता व शुद्धता प्रगट होती है। जिनका मुख देखनेसे उनके भीतर भावोंकी शुद्धता है ऐसा ज्ञान दर्शकको होजाता है । चौथा विशेषण हिंसादिसे रहितपना है । मुनिकी बाहरी क्रियाओंसे ऐसा प्रगट होना चाहिये कि वे परम दयावान हैं। स्थावर व त्रस जीवोंका वध मेरे द्वारा न होजावे इस तरह चलने, बैठने, सोने, वोलने, भोजन करने आदिमें वर्तते हैं, कमी असत्य, कटुक, पीडाकारी वचन नहीं बोलते हैं, कभी किसी वस्तुको विना दिये नहीं लेते हैं, आवश्यक्ता होनेपर भी धनके फलोंको व नदी वापिकाके जलको नहीं लेते, मन वचन कायसे शीलव्रतको सर्व दोषोंसे बचाकर पालते हैं, कभी कोई सचित्त अचित्त परिग्रह रखते नहीं, न आरम्भ करते हैं। इस तरह जिनका द्रव्यलिंग पंच पापोंसे रहित होता है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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