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________________ तृतीय खण्ड। [३५७ मार्गका उपदेश करते हैं । श्रावकोंको पूजा पाठादि करनेका उपदेश करते हैं, शिष्योंको साधु पद दे उनके चारित्रकी रक्षा करते हैं, दुःखी, थके, रोगी, बाल, वृद्ध साधुकी वैय्यावृत्य या सेवा इस तरह करते हैं जिससे अपने साधुके मूलगुणोंमें कोई दोष नहीं आवे । उनके शरीरकी सेवा अपने शरीरसे व अपने बचनोंसे करते हैं तथा दूसरे साधुओंकी सेवा करनेके लिये श्रावकोंको भी उपदेश करते हैं । साधु भोजन व औषधि स्वयं बनाकर नहीं देसक्ते हैं, न लाकर देसक्ते हैं-गृहस्थ योग्य कोई आरम्भ करके साधुनन अन्य साधुओंकी सेवा नहीं कर सक्ते हैं। ___ श्रावकोंको भी साधुकी वैयावृत्य शास्त्रोक्त विधिसे करनी योग्य है । भक्तिसे आहारादिका दान करना योग्य है । जो साधु शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी हैं वे ही दानके पात्र हैं। फिर कहा है कि साधुओंको उन साधुओंका आदरसत्कार न करना चाहिये जो साधुमार्गके चारित्रमें भृष्ट या आलसी हैं; न उनकी संगति करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे अपने चारित्रका मी नाश हो जाता है । तथा जो साधु गुणवान साधुओंका विनय नहीं करता है वह भी गुणहीन हो जाता है । साधुओंको ऐसे लौकिक जनोंसे संसर्ग न करना चाहिये जिनकी संगतिसे अपने संयममें शिथिलता हो जाये । साधुको सदा ही अपनेसे नो गुणोंमें अधिक हों व बराबर हों उनकी ही संगति करनी चाहिये । इस तरह इस अधिकारमें साधुके उत्सर्ग और अपवाद दो मार्ग बताए हैं। जहां रत्नत्रयमई समाधिरूप शुद्धभावमें तल्लीनता है, वह
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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