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________________ ३५६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । कराकर पालते हुए उससे आत्म ध्यानका कार्य लेते हैं । साधुको अपने चारित्रकी रक्षा के लिये जिन आगमका सेवन करते हुए आत्मा और परके स्वभावका अच्छी तरह मरमी होजाना चाहिये, कारण जिसको आत्माका यथार्थज्ञान न होगा वह किस तरह आत्मध्यान करके एकाग्रता प्राप्तकर अपने कर्मोंका क्षय कर सकेगा ? फिर यह बतलाया है कि साधुको एक ही समय में तत्वार्थका श्रद्धान, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव धारण करना चाहिये । आत्मज्ञान सहित तप ही कर्मोंकी जितनी निर्जरा कर सक्ता है। रतनी निर्जरा करोड़ों भवों में भी अज्ञानी नहीं कर सक्ता है, इसनये साधुको यथार्थ ज्ञानी होकर पूर्ण वैरागी होना चाहिये, यहां तक कि उसकी परमें कुछ भी ममता न होवे । वास्तवमें साधु वही है जो शत्रु मित्र, सुख दुःख, निन्दा, प्रशंसा, कंचन तृण, जीवन सरणमें समान भावका धारी हो । जो साधु रागद्वेष मोह छोड़कर वीतरागी होते हैं उन्ही के कर्मोंका क्षय होता है । जहां रत्नत्रयकी एकतारूप शुद्धोपयोग है वहीं साधुका श्रेष्ठ व उत्सर्ग मार्ग है । उनहींके आश्रव नहीं होता है, परन्तु शुद्धोपयोगमें रमणता करनेके लिये जो साधु हर समय असमर्थ होते हैं वे शुभोपयोग में वर्तन करते हैं । यद्यपि धर्मानुरागसे कर्मोंका आश्रव होता है । तथापि इसके आलम्बन से वे अशुभोपयोगसे बचते हुए शुद्धोपयोग में जानेकी उत्कंठा रखते हैं । शुभोपयोगी साधु पांच परमेष्ठीकी भक्ति, वंदना, स्तुति करते हैं । साधुओंसे परम प्रेम रखते हैं । साधु व श्रावकादिको धर्म "
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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