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________________ [१७ तृतीय खण्ड। हो, धनवान व निर्धनको एक दृष्टिसे देखता हो, लाभ अलाममें समान हो, पूजा किये जानेपर प्रसन्न व अपमान किये जानेपर अप्रसन्न न होता हो। वास्तवमें आचार्यका अवलोकन अन्तरंग लोकपर रहता है । अंतरंग लोक हरएक शरीरके भीतर शुद्ध आत्मा मात्र है अर्थात् जैसा आत्मा आचर्यका है वैसा ही आत्मा सर्व प्राणीमात्रका है । इस दृष्टिके धारी मुनिमें अवश्य समताभाव रहता है, क्योंकि वे शरीर व कायकी क्रियाओंकी ओर अधिक लक्ष्य न देकर आत्मकार्य में ही दृढ़ रहते हैं। जैसा कि स्वामी पूज्यपादने समाधिशतक व इष्टोपदेशमें कहा है आत्मज्ञानात्परं कार्य न बुद्धौ धारयेचिरम् । कुर्यादथंवशात्किञ्चिाकायाभ्यामतत्परः ॥५०॥ भावार्थ-आत्मज्ञानके सिवाय अन्य कार्यको बुद्धिमें अधिक समय तक धारण न करे । प्रयोजन वश किसी कार्यको उसमें लबलीन न होकर वचन और कायसे करे । अवन्नपि न हि ते गच्छन्नपि न गच्छति ! स्थिरीकृतात्मतत्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४१ ।। भावार्थ-आत्मस्वभावके भीतर दृढ़तासे विश्वास करनेवाला व आत्मानंदकी रुचिबाला कुछ वोलते हुए भी मानो कुछ नहीं वोलता है, जाते हुए भी नहीं जाता, है, देखते हुए भी नहीं देखता है अर्थात् उस आत्मज्ञानीका मुख्य ध्येय निज आत्मकार्य ही रहता है। ___ दूसरा विशेपण गुणाढ्य है। आचार्य साधु योग्य २८ अट्ठाईस मूलगुणोंको पालनेवाले हों तथा आचार्यके योग्य छत्तीस
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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