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________________ १६] . श्रीप्रवचनसारटोका । घृणासे. रहित निनदीक्षाके योग्य कुलको कुल, कहते हैं । अन्तरंग शुद्धात्माका अनुभवरूप निग्रंथ निर्विकाररूपको रूप कहते हैं। शुद्धात्मानुभवको विनाश करनेवाले वृद्धपने, बालपने व यौवनपनेके उद्धतपनेसे पैदा होनेवाली बुद्धिकी चंचलतासे रहित होनेको क्य कहते हैं। इन कुल, रूप तथा वयसे श्रेष्ठ हो तथा अपने परमात्मा तत्त्वकी भावनासहित समचित्तधारी अन्य आचार्योंके द्वारा सम्मतहों। ऐसे गुणोंसे परिपूर्ण परमभावनाके साधक दीक्षाके दाता आचार्यका आश्रय करके उनको नमस्कार करता हुआ यह प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! अनंतज्ञान आदि अरहंतके गुणोंकी सम्पदाको पैदा करनेवाली व जिसका लाभ अनादिकालमें भी अत्यन्त दुर्लभ रहा है ऐसी भाव सहित निनदीक्षाका प्रसाद देकर मेरेको अवश्य स्वीकार कीजिये, तब वह उन आचार्यके द्वारा इस तरह स्वीकार किया जाता है । कि "हे भव्य इस असार संसारमें दुर्लभ रत्नत्रयके लाभको प्राप्त करके अपने शुद्धात्माकी भावनारूप निश्चय चार प्रकार आराधनाके द्वारा तू अपना जन्म सफल कर।" भावार्थ:--इस गाथामें आचार्यने जिनदीक्षादाता आचार्यका स्वरूप बताकर उनसे जिनदीक्षा लेनेका विधान बताया है: जिससे जिन दीक्षा ली जावे वह आचार्य यदि महान् गुणधारी न हो तो उसका प्रभाव शिप्योंकी आत्माओंपर नहीं पड़ता है। प्रभावशाली आचार्यका शिष्यपनाआत्माको सदाआचार्य के अनुकरणमें उत्साहित करता रहता है। यहां आचार्यके चार विशेषण वताए हैं-समण शब्दसे यह दिखलाया है कि वह आचार्य समताकी दृष्टिका घरनेवाला हो, अपनी निन्दा, प्रशंसामें एक भाव रखता.
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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