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________________ तृतीय खण्ड। [१५ · भावार्थ-वीर पुरुप ग्रहवाससे विरक्त होकर 'जैसे भोगे हुए फूलोंको नीरस समझकर छोड़ा जाता है' इस तरह धन सुवर्णादि । सहित बन्धुजनोंका त्याग कर देते हैं ।। २ ॥ ___ उत्थानिका-आगे जिन दीक्षाको लेनेवाला भव्य जीव जनाचार्यका शरण ग्रहण करता है ऐसा कहते हैं: समणं गणिं गुणडूद कुलरूवश्योविसिट्टमिहदरं । समणेहि तपि पणदो पडिच्छ में चेदि अणुगहिशे ॥३॥ श्रमणं गणिनं गुणाढ्यं कुलरूपवयोविशिष्टमिएतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मा चेत्यनुगृहीतः ॥ ३ ॥ अन्दय सहित सामान्यार्थः-( समणं ) समताभावमें लीन, (गुणद) गुणोंसे परिपूर्ण, (कुलरूववयोविसिट्ठम्) कुल, रूप तथा अवस्थासे उल्लष्ट, (समणेहि इट्टतरं) महामुनियोंसे अत्यन्त मान्य (तं गणि) ऐसे उस आचार्यके पास प्राप्त होकर (पणदो ) उनको नमस्कार करता हुआ (च अपि) और निश्चय 'करके (मां-पडिच्छ) मेरेको अंगीकार कीजिये (इदि) ऐसी प्रार्थना करता हुआ (अणुगहिरो) आचार्य द्वारा अंगीकार किया जाता है ॥ ३ ॥ दिशेपाय:-मिनदीक्षाका अर्थी जिस आचार्य के पास जाकर दीक्षाकी प्रार्थना करता है उसका स्वरूप बताते हैं कि वह निन्दा व प्रशंसा आदिमें समताभावको रखके पूर्व सूत्रमें कहे गए निश्चय और व्यवहार पञ्च प्रकार आचारके पालनेमें प्रवीण हों, चौरासीलाख गुण और अठारह हजार शीलके सहकारी कारणरूप जो अपने शुद्धात्माका अनुभवरूप उत्तम गुण उससे परिपूर्ण हों। लोगोंकी
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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