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________________ १४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । निकट नहीं होता है और दीक्षाके इच्छकके मनमें वैराग्य आजाता है वह उसी समय गुरुसे दीक्षा ले लेता है । यदि कुटुम्ब निकट हो तो उसके परिणामों को शांतिदायक उपदेश देना उचित है। यदि निकट नहीं है तो उसके समझानेके लिये कुटुम्बके पास आना फिर दीक्षा लेना ऐसी कोई आवश्यक्ता नहीं है । यह भी नियम नहीं है " 'कि अपने कुटुम्बी अपने ऊपर क्षमाभाव करदें तब ही दीक्षा लेवे । आप अपनेसे सबपर क्षमा भाव करे। गृहस्थ कुटुम्बी वैर न छोड़ें तो आप दीक्षासे रुके नहीं । बहुधा शत्रु कुटुम्बियोंने मुनियोंपर उपसर्ग किये हैं । दीक्षा लेनेवालेको अपना मन रागद्वेष शून्य करके समता और शांतिसे पूर्णकर लेना चाहिये फिर वह निश्चय रत्नत्रय रूप स्वानुभवसे होनेवाले अतीन्द्रिय आनन्दके लिये व्यवहार पंचाचारको धारण करे अर्थात् छः द्रव्य, पञ्चास्तिकाय, साततत्त्व, नौ पदार्थकी यथार्थ श्रद्धा रक्खे; प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोग इन चार प्रकार ज्ञानके साधनोंका आराधक होवे पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्तिरूप चारित्रपर आरूढ़ होवे; अनशनादि बारह प्रकार तपमें उद्यमी होवे तथा आत्मवीर्यको न छिपाकर वडे उत्साह से मुनिके योग्य क्रियाओंका पालक होवे - अनादि कालीन - कर्म के पिंजरेको तोडकर 'किसत शीघ्र मैं स्वाधीन हो जाऊं और " निरन्तर स्वात्मीकरसका पान करूं इस भावनामें तल्लीन हो जावे । जैसा मूलाचार अनगार भावनामें कहा है: निम्मालियसुमिणाविय धणकणयसमिद्धवंधवजणं च । - पर्याहंति बोरपुरिसा विरतकामा गिहावासे ॥ ७७४ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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