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________________ २२६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। मुक्तिद्वीपमें लेजाता है । जहां आत्मध्यान होता है वहां निश्चय और व्यवहार दोनों ही मोक्षमार्ग पाए जाते हैं--ईर्या, भाषा, एषणा आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापण इन पांच समितियोंमें यत्नाचारसे वर्तन करूं यह तो व्यवहार धर्म है और जहां आत्मध्यानमें मग्नता है वहां ये पांचों ही उसके अपने स्वरूपकी सावधानीमें गर्भित हैं यह निश्चयधर्म है। मन, बचन कायको दंड करके वश रक्खू यह व्यवहार धर्म है । अपने आत्म स्वरूपमें गुप्त होजाना निश्चय धर्म है जहां मन वचन कायका वश होना गर्भित है । पांचों इंद्रियोंकी इच्छाओंको निरोधूं यह व्यवहार धर्म है, अपने शुद्ध स्वरूपमें संवर रूप होजाना निश्चय धर्म है वहां इंद्रिय निरोध गर्भित है। क्रोधादि चार कषायोंको वश रखू यह व्यवहार धर्म है, कपाय रहित आन्मामें एकरूप होजाना यह निश्चयधर्म है इसमें कपाय विजयगर्मित है। तत्वार्थोका श्रद्धान करना व्यवहार धर्म है। निज आत्माका परसे मिन्न श्रद्धान करना निश्चयधर्म है इसमें तत्वार्थ श्रद्धान गर्मित है, आगमका ज्ञान व्यवहार धर्म है, अपने आत्मामें आत्माका अनुभव करना निश्चय धर्म है । इस स्वसंवेदन ज्ञानमें आगमज्ञान गर्भित है। ' जब कोई निश्चयधर्ममें आरूढ़ होजाता है तब व्यवहार मार्ग और निश्चयमार्ग उससे छूट नहीं जाते, किन्तु उन मार्गोका विकल्प छूट जाता है। जहां तक विचार है वहां तक मार्ग, चलनेका विकल्प है, जहां आत्मामें थिरता है वहां विचार नहीं है । उस समय जैसे नमककी डली पानीमें डूबकर पानीके साथ एकमेक होजाती है उसी तरह ज्ञानोपयोग आत्माके स्वभावमें डूबकर उससे एकमेक होजाता, है। स्वरूपमें थिरता पानेके पहले जबतक व्यवहार धर्मका विकल्प
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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