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________________ तृतीय खण्ड। [२२७ था कि मैं समिति पाएं, गुप्ति रक्खू, इंद्रिय दम, कषायोंको जीत, सात तत्व ही यथार्थ हैं, आगमसे ही श्रुतज्ञान होता है तबतक व्यवहार मार्गपर चल रहा था। जब यह विकल्प रह गया कि मेरा आत्मा ही सब कुछ है, वही एक मेग निजद्रव्य है, उसीमें ही तन्मय होना चाहिये तब वह निश्चय मार्गपर चल रहा है। इस तरह चलते २ अर्थात् आत्माकी भावना करते २ जब स्वानुभव प्राप्त करलेता है तब विचारोंकी तरंगोंसे छूटकर कल्लोल रहित समुद्रके समान निश्चल होजाता है । इसीको आत्मध्यान कहते हैं। यद्यपि यह ध्यान निश्चय और व्यवहार नयके विकल्पसे रहित है तथापि वहां दोनों ही मार्ग गर्भित हैं । उसने एक आत्माको ही ग्रहण किया है इससे निश्चय मार्ग है तथा उसकी इंद्रियां निश्चल है, मन थिर है, कपायोंका वेग नहीं है, गमन भोजन शौचादि नहीं हैं, तत्वार्थश्रद्धान व आत्मश्रद्धान है, आगमका यथार्थज्ञान है तथा निज आत्माका ज्ञान है; ये सब उस आत्मध्यानमें इसी तरह गर्मित है जैसे एक शर्बतमें अनेक पदार्थ मिले हों, एक चटनीमें अनेक मसाले मिले हों, एक औषधिमें अनेक औषधियें मिली हों । इस तरह जहां आत्मज्ञान है उसी समय वहां तत्वार्थश्रद्धान, आगमज्ञान तथा संयमपना है-इन सबकी एकता है। इस एकतामें रमणकर्ता ही संयमी श्रमण है । जैसा श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमें कहा है दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि मुणी णियमा। तम्हां पयत्तचित्ता यूयं माणं समभसह ॥ अर्थात्-मुनि ध्यानमें ही निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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