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________________ तृतीय खण्ड | [ २२५ अन्य सहित सामान्यार्थ - ( पंचसमिदो ) जो पांच समितियोंका धारी है, (तिगुतो) तीन गुप्तिमें लीन है, (पंचेदियसंवुडो ) पांच इंद्रियोंका विजयी है, (जिदकसाओ ) कषायोंको जितनेवाला है (दंसणणाणसमग्गो) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे पूर्ण है (सो समणो) वह साधु (संजदो) संयमी (भणिदो) कहा गया है। विशेपार्थ- जो व्यवहार नयसे पांच समितियोंसे युक्त है, परंतु निश्रय नगसे अपने आत्माके स्वरूपमें भले प्रकार परिणमन कर रहा है; जो व्यवहार नयसे मनं वचन कायको रोक करके त्रिगुप्त है, परंतु निश्चय नयसे अपने स्वरूपमें लीन है; जो व्यवहारकरके स्पर्शनादि पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे हटकरके संकृत है, परंतु निश्चयमे अतींद्रिय सुखके स्वादमें रत है; जो व्यवहार करके क्रोधादि कपायोको जीत लेनेसे जितकपाय है, परंतु निश्चयनयसे कपाय रहित आत्माकी भावना रत है तथा जो अपने शुद्धात्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन तथा स्वसंवेदन ज्ञान इन दोनोंसे पूर्ण है सोही इन गुणोंका धारी साधु संयमी है ऐसा कहा गया है। इससे यह गिद्ध किया गया कि व्यवहारमें जो बाहरी पदार्थों के सम्वन्ध में व्याख्यान किया गया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनोंका एक साथ होना चाहिये, भीतरी आत्माकी अपेक्षा व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान लेना चाहिये। इस तरह एक ही सविकल्प भेद सहित तीनपना तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान दोनों घटते हैं । भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने यह वात झलका दी है कि आत्मज्ञान या आत्मध्यान ही सुनिपना है तथा वही संयम है जो १५
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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