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________________ एडा तृतीय खण्ड। [ १८९ (२) कालका भी विचार करना जरूरी है । यह ऋतु कैसी है, शीत है या उप्ण है या वर्षाकाल है, अधिक उष्णता है या अधिक शीत है, सहनयोग्य है या नहीं, कालका विचार देशके साथ भी कर सक्ते हैं कि इस समय किस देशमें कैसी ऋतु है वहां संयम पल सकेगा या नहीं । भोजनको जाते हुए अटपटी आखड़ी देश व कालको विचार कर लेवे कि जिससे शरीरको पीड़ा न उठ जावे। जब शरीरकी शक्ति अधिक देखे तब कड़ी प्रतिज्ञा लेवे जब हीन देखे तब सुगम प्रतिज्ञा लेवे । निस रस या वस्तुके त्यागसे शरीर बिगड़ जावे उसका त्याग न करे । ऋतुके अनुसार क्या भोजन लाभकारी होगा उसको चला करके त्याग न कर बैठे। प्रयोनन तो यह है कि मैं स्वरूपाचरणमें रमूं उसके लिये शरीरको बनाए रक्खू । इस भावनासे योग्यताके साथ वर्तन करे । (३) अपने परिश्रमकी भी परीक्षा करे-कि मैंने ग्रंथ लेखनमें, शास्त्रोपदेशमें, विहार करनेमें इतना परिश्रम किया है अब शरीरको स्वास्थ्य लाभ कराना चाहिये नहीं तो यह किसी कामका न रहेगा। ऐसा विचार कर शरीरको आहारादि कराने में प्रमाद न करे । (४) अपनी सहनशीलताको देखे कि मैं कितने उपवासादि तप व कायक्लेशादि तप करके नहीं घबडाऊंगा । जितनी शक्ति देखे उतना तप करे । यदि अपनी शक्तिको न देखकर शक्तिसे अधिक तप कर ले तो आर्तध्यानी होकर धर्मध्यानसे डिग जावे और उल्टी अधिक हानि करे।। (६) अपने शरीरकी दशाको देखकर योग्य आहार ले या थोड़ी या अधिक दूर विहार करे । मेरा शरीर बालक है या वृद्ध
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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