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________________ १६०] श्रीप्रवचनसारटोकी । है या रोगी है ऐसा विचार करके आहार विहार करै। वास्तवमें ये सब अपवाद या व्यवहार मार्गके विचार हैं, परंतु अभ्यासी साधकको ऐसा करना उचित है, नहीं तो वह धर्मध्यान निराकुलताके साथ नहीं कर सक्ता है। वीतराग चारित्रको ही ग्रहण करने योग्य मानके जब उसमें परिणाम न ठहरें तब सराग चारित्रमें वर्तन करे, तौभी वीतराग चारित्रमें शीघ्र जानेकी भावना करे । ____ इस तरह जो साधु विवेकी होकर देशकालादि देखकर वर्तन करते हैं वे कभी संयमका भंग न करते हुए सुगमतासे मोक्षमार्गपर चले जाते हैं। यही कारण है जिससे यह बात कही है कि साधु कभी अप्रमत्त गुणस्थानमें कभी प्रमत्त गुणस्थानमें वारम्बार आवागमन करते हैं-अप्रमत्त गुणस्थानमें ठहरना उत्सर्ग मार्ग है, प्रमत्तमें आना अपवाद मार्ग है । इसी छठे गुणस्थानमें ही साधु आहार, विहार, उपदेशादि करते हैं। सातवें ध्यानस्थ होनाते हैं । यद्यपि हरएक दो गुणस्थानका काल अंतर्मुहूते है तथापि बार बार आते जाते हैं । कभी उपदेश करते विहार करते आहार करते हुए भी मध्यमें जघन्य या किसी मध्यम अंतमुहर्त के लिये स्वरूपमें रमण कर लेते हैं। प्रयोजन यही है कि जिस तरह इस नाशवंत देहसे दीर्घ काल तक स्वरूपका आराधन होसके उस तरह साधुको विचार 'पूर्वक वर्तन करना चाहिये । २८ मूलगुणोंकी रक्षा करते हुए कोमल कठोर जैसा अवसर हो चारित्र पालते रहना चाहिये । परिणामों में कभी संक्लेश भावको नहीं लाना चाहिये। कहा है सारसमुच्चयमें श्री कुलभद्र आचार्य----
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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