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________________ तृतीय खण्ड | [ ११५ reer a तोत्र' दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥ भावार्थ- दो आदमियोंने साथ साथ किसी हिंसाको किया है । एकको वह तीव्र फलको देती है दूसरेको वही हिंसा अल्प फर देती है। जैसे दो आदमियोंने मिलकर एक पशुका बध किया । इनमें से एक बहुत कठोर भाव थे। इससे उसने तीव्र पाप बांधा । दूसरेके भावोंनें इतनी कठोरता न थी, वह जीवदयाको अच्छा सम झता था, परंतु उस समय उस मनुष्यकी बातों में माकर उसके साथ शामिल हो गया इसलिए दूसरा पहले की अपेक्षा कम कर्मबंध करेगा । स्पापिदिति हिंसा हिंसाकलमेकमेव फलकाले । areer सैव हिंसा दियहसाफलं विपुलम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ - किसी जीवने एक पशुकी रक्षा की। दूसरा देखकर यह विचारता है कि मैं तो कभी नहीं छोडता अवश्य मार डालता है ऐसा जीव अहिंमासे हिंसा के फलका भागी हो जाता है । कोई जीवकी डिमाके द्वारा अहिंसा के फलका भागी हो जाता है जैसे कोई किसी को सता रहा है दूपरा देखकर करुणाबुद्धिला रहा है बस इसके अहिंसाका फल प्राप्त होगा अथवा दोनोंके दो दृष्टांत यह भी हो सक्त हैं कि किसीने किसीको कालान्तर में भारी कष्ट देनेके लिये अभी किसी दूसरे के आक्रमण से उसको बचा लिया। यद्यपि वर्तमान में हिंसा की परंतु हिंसात्मक भावों से वह हिंसा के फलका भागी ही होगा। तथा कोई किसीको किसी अपराधके कारण इसलिये दंड दे रहा है कि यह सुधर जावे व धर्म मार्गपर चले । ऐसी स्थिति में हिंसा करते हुए भी वह अमाके फलका भागी होगा।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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