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________________ __ तृतीय खण्ड। [१०६ किसीके बाहरी पदार्थ बहुत अल्प होनेपर भी तीव्र मूर्छा है। किसीके याहरी पदार्थ बहुत अधिक होनेपर भी अल्प मूर्छा है-जितना ममत्व होगा उतना परिग्रह जानना चाहिये। इसी तरह जैसा हिसात्मक भाव होगा वैसा बन्ध पड़ेगा । अहिंसामई भावोंसे कभी बन्ध नहीं हो सक्ता । श्री अमृतचन्द्र आचार्यने समयसारकलशमें लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्मततान्यस्मिन् करणानि सन्तु चिदचियापादनं वास्तु तत् ।। रागादोनुपयोगभूमिमनयद् ज्ञानं भवेत् केवलं, वन्धं नैव कुतोऽप्युपेत्ययमही सम्यग्दुगात्मा ध्रुवं ॥ ३ ॥ भावार्थ-लोक कार्मणवर्गणाओंसे भरा रहो, हलनचलनरूप योगोंका कर्म भी होता रहो, हाथपग आदि कारणोंका भी व्यापार हो व चैतन्य व अचैतन्य प्राणीका घात मी चाहे हो परन्तु यदि ज्ञान रागद्वेषादिको अपनी उपयोगकी भूमिमें न लावे तो सम्यग्दृष्टी ज्ञानी निश्चयसे कभी भी बन्धको प्राप्त न होगा। ' ___ भाव यही है कि बाहरी क्रियासे बन्ध नहीं होता, बन्ध तो अपने भीतरी भावोंसे होता है। श्री समयसारजीमें भी कहा हैवत्थु पडुम्च तं पुण अभवसाणं तु होदि जीवाणं । । ण हि वत्थुदोदु वंधो अभवसाणेण बंधोति ॥ २७७ ॥ भावार्थ-यद्यपि बाहरी वस्तुओंका आश्रय लेकर जीवोंके रागादि अध्यवसान या भाव होता है तथापि बन्ध वस्तुओंके अधिक या कम सम्बंधसे नहीं, किन्तु रागादि भावोंसे ही बन्ध होता है। श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमें श्री अमृतचंदजी कहते हैं:
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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