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________________ १०८] श्रीप्रवचनसारटोका। . सुहमो य बंधो) इस क्रियाके निमित्तसे जरासा भी कर्मका बन्ध (समये) आगममें (णहि देसिदो) नहीं कहा गया है। जैसे (सुच्छा परिग्गहोच्चिय ) मूर्छाको परिग्रह कहते हैं सो (अज्झप्पपमाणदो दिवो ) अन्तरङ्ग भावके अनुसार मूर्छा देखी गई है। विशेषार्थ-मूर्छारूप रागादि परिणामोंके अनुसार परिग्रह होती है, बाहरी परिमहके अनुसार मूर्छा नहीं होती है तैसे यहां सूक्ष्म जन्तुके घात होनेपर जितने अशमें अपने स्वभावसे चलनरूप रागादि परिणति रूप भाव हिंसा है उतने ही अंशमें बन्ध होगा, केवल पगके संघट्टनसे मरते हुए जीवके उस तपोधनके रागादि परिणतिरूप भाव हिंसा नहीं होती है-इसलिये बंध भी नहीं होता है। भावार्थ-इन दो गाथाओंमें आचार्यने वताया है कि जबतक भाव हिंसा न होगी तबतक हिंसा सम्बन्धी वन्ध न होगा । एक साधु शास्त्रोक्त विधिसे ४ हाथ भूमि आगे देखकर वीतरागभावसे चल रहा है-उसने तो पग सम्हालके उठाया या रक्खा यदि उसके पगकी रगड़से कोई अचानक वीचमें आजानेवाला छोटा जंतु पीड़ित हो जावे अथवा मरजावे तौमी उसके परिणामोंमें भावहिंसाके न होनेसे बन्ध न होगा। बन्धका कारण बाहरी क्रिया नहीं है किन्तु राग द्वेष मोह भाव है, जितने अंशमें रागादिभाव होगा उतने ही अंशमें बन्ध होगा । रागादिके विना बन्ध नहीं होसक्ता है। इसपर आचार्यने परिग्रहका दृष्टांत दिया है कि मूर्छा या अन्तरंग ममत्त्व परिणामको मूर्छा कहा है। बाहरी पदार्थ अधिक होनेसे • अधिक मूर्छा व कम होनेसे कम मूर्छा होगी ऐसा नियम नहीं है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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