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________________ .६२ ] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । बंद होजाता है । बुद्धिमें स्वात्म रस स्वाद ही अनुभव आता है । इस स्वात्मानुभव रूपी उत्कृष्ट धर्मध्यानके द्वारा कषायका बल घटता जाता है । ज्यों ज्यों कषायका उदय निर्मल होता जाता है त्यो २ अनन्त गुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है । नांपर समय २ अनन्त गुणी विशुद्धता होती है वहींते मधोकरणलव्धिका प्रारम्भ होता है यह दशा सातवें में ही अंतमुहूर्त्त तक रहती है । तव ऐसे परिणामोंकी विशुद्धता बढ़ती है कि जो विशुद्धता अधोकरण से भिन्न जातिकी है। यह भी समय २ अनन्त गुणो -बढ़ती जाती है। इसकी उन्नति कालको अपूर्वकरण नामका आठवां गुणस्थान कहते हैं । फिर और भी विलक्षण विशुद्धता अनतगुणी बढ़ती जाती है क्योंकि कपायका चल यहां बहुत ही तुच्छ होता है । यह दशा अंतमुहूर्त रहती है । इस वर्तनको अनिवृत्तिकरणलब्धि कहते हैं। इस तरह विशुद्धता की चढ़ती से सर्व मोहनीय कर्म नष्ट होजाता है केवल सुक्ष्म लोमका उदय रह जाता है। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से एथवत्ववितर्क दीचार नामका प्रथम शुध्याद शुरू होजाता है । यही ध्यान सुक्ष्मलोम नाम के दसवें गुणस्थान में भी रहता है। यद्यपि इस ध्यान में शब्द, पदार्थ, तथा योगका पलटना है तथापि यह सब पलटन ध्याताकी बुद्धिके अगोचर होता है। ध्याताका उपयोग तो आत्मस्थ दी रहना है। वह आत्मीक रसमें मग्न रहता है। इसी स्वरूपमन्नता के कारण आत्मा दस गुणस्थानके अतमुहूर्त कालमें ही सूक्ष्म लोभको भो नाशकर समोसे छूटकर निर्मोह वीतरागी होजाता है - तब इर. को श्रीशमोह गुणस्थानवर्ती कहते हैं। अब यहां मोहके चले
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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