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________________ श्रीवचनसार थापाटीका । ...६ अन्वयसहित विशेषार्थ - (जो उपभोगविसुद्धो ) मो उपयोग करके विशुद्ध है अर्थात् जो शुद्धोपयोग परिणामोंमें रहता हुआ शुद्ध भाववारी होजाता है सो (आदा) आत्मा (सयमेव ) स्वयं ही अपने आप ही अपने पुरुषार्थसे ( विगदावरणांत राय मोह रओ भूदो ) आवरण, अंतराय और मोहकी रजसे छूटकर अर्थात ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय तथा मोहनीय इन चार घातिया कर्मो के बंधनों से बिल्कुल अलग होकर (णेय मुदाण ) ज्ञेय पदार्थों ( परं) अतको (जादि) प्राप्त होता है अर्थात सर्व पदार्थों का ज्ञाता होजाता है । इसका विस्तार यह है कि जो कोई मोहरहित शुद्ध आत्मा के अनुभव लक्षणमई शुद्धोपयोगसे अथवा आगम भाप के द्वारा तय दिनकेवीवार नामके पहले शुक्लध्यानसे पहले सर्वमोहको नाश करके फिर पीछे रागादि विकल्पोंकी उपाधि शून्य स्वसंवेदन लक्षणमई एकत्ववितर्क अवीचार नाम दूसरे शुरू ध्यानके द्वारा क्षण कषाय गुणस्थान में अंतर्मुहूर्त ठहरकर उसी गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन घातिया कर्माको एक साथ नाश करता है वह तीन जगत तीन कालकी समस्त वस्तुओंके भीतर रहे हुए अनन्त स्वभावको एक साथ प्रकाशनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धोपयोग से सर्वज्ञ होजाता है । भावार्थ - यहां आचार्य ने यह बताया है कि शुद्धोपयोगसे अथवा साम्यभावसे ही यह मात्मा स्वयं बिना किसी दूसरेकी सहायता के क्षपक श्रेणी चढ़ जाता है। सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में ही प्रमत्त भाव नहीं रहता है । बुद्धि पूर्वक कपायका झलकना wwwviti
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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