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________________ श्रीभवचनसार भाषाटीका। [६३ जानेसे ऐसी निश्चलता व वीतरागता होगई है कि यह आत्मा , बिलकुल ध्यानमें तन्मयी है यहां पलटना बंद हो रहा है। इसीसे यहां एकत्त्व वितर्क अवीचार नामका दुसरा शुक्लव्यान होता है। यहाँके परम निर्मक उपयोगके द्वारा यह आत्मा अंतर्मुइतमें ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, तथा अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोके वलको क्षीण करता हुआ अंत समयमें इनका सवथा नाश: कर अर्थात् अपने आत्मासे इनको बिलकुछ छुड़ाकर शुद्ध परहेज परमात्मा होनाता है। आत्माके स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य क्षायिकसम्यक्त व वीतरागता आदि गुण प्रगट होजाते हैं। अब इसको पूर्ण निमकुलता हो जाती है। क्योंकि सर्व दुःख व आकुलता के कारण मिट जाते हैं। परिणामोंमें माकुलता के कारण ज्ञानदर्शनकी कमी, आत्मालकी हीनता तथा रागढेष कषायोंका बल है। यहांपर अनंत ज्ञानदर्शनवीर्य व वीतराग भाव प्रगट हो जाते हैं इससे आकुलताके सब कारण मिट जाते हैं। मरहंत परमात्मा सक्यो जानते हुए भी अपने मात्मीक स्वादमें मगन रहते हैं । यह अरहंत पद महान पद है । जो इस पदमें जाता है वह जीवन मुक्त परमात्मा हो जाता है उसके अलौकिक लक्षण प्रगट हो जाते हैं, उसके मति श्रुत अवधि मनपर्यय ये ज्ञान नहीं रहने में ज्ञान सब केवलज्ञानमें, समानाते हैं ऐमा अद्भुत सर्वज्ञपद निसके सर्व इन्द्र गणेन्द्र विद्याधर रामा आदि पूना करते हैं, मात्र शुद्धोपयोग द्वारा आत्मामें प्रगट होमाता है ऐसा जान विकल हान धर्मध्यान चित ठान मात्मानंद रसमें तनमई हो शुद्धोपयोगका विकास भोगना चाहिये । यहाँ इतना
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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