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________________ ३३४ ] श्रीnearer भाषाका | स्वादको न पानेवाले बहिरात्मा जीवोंका इष्ट अनिष्ट इंद्रियोंके चिपयों को अधिक संसगे रखना क्योंकि इनको देखकर कि पुरुष प्रीति प्रीतिरूप चारित्र मोहफे राग द्वेष भेदको जानते हैं इसलिये ( मोहस्सेदाणि लिंगाणि ) गोहके ये ही चिन्ह हैं । अर्थात् इन चिन्हों को जानने के पीछे ही विकार रहित अपने शुद्ध आत्माकी भावना द्वारा इन राग द्वेष मोहका घात करना चाहिये ऐसा का अर्थ है । भावार्थ - इस गाथामें जाचार्यने राग द्वेष मोहके चिन्ह बताये हैं जगतमें चेतन अचेतन पदार्थ हैं उनका स्वभाव क्या है तथा उनमें एक दूसरेके निमित्तसे क्या अवस्थाएं होती हैं, यदि निमित्त उनके विभावरूप परिणमनका न हो और वे स्वभावरूप परिणयन करें तो वे कैसे परिणगन करते हैं । इत्यादि जनतक पढार्थीका जैसा कुछ स्वरूप है उसको वैपा न श्रद्धान कर औरफा और अद्धार करना यह दर्शन मोह अर्थात मिथ्याबड़ा व चिन्ह है। यह मिथ्यादृष्टी जीव परमात्मा संसारी आत्मा, पुण्य पाप आदिका स्वरूप ठीक ठीक नहीं जानता है। कुछ कुछ कहता है यही मिथ्यात्त्वका चिन्ह है । दूसरा चिन्ह यह है कि वह अपने स्वार्थयश जिन मनुष्योंसे व पशुओंसे अफगा प्रयोजन निकलता हुआ जानता है उनमें अतिशय राग -या ममत्त्य वा दयाभाव करता है तथा दूसरा भाव यह है कि उसके भीतर तिर्यञ्च और मनुष्योंपर दयाभाव नहीं होता है । अपने मतलब के लिये उनको बहुत कष्ट देता है । अन्यायसे 1 वर्तनकर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रहकी तृष्णाकर "
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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