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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३३३ भावार्थ-जो साधु यम नियममें लीन हैं, अंतरंग बहिरंग शांत हैं, आत्म समाधिमें वर्तनेवाले हैं. सर्व जीवोंपर दयालु हैं, हितकारी मर्यादा रूप आहार करनेवाले हैं, निद्राके जीतनेवाले हैं तथा शुद्ध आत्माके स्वरूपको निश्चय किये हुए हैं वे ही सर्व दुःखोंके समूहको जड़मूलसे जला देते हैं। ____ तात्पर्य यह है कि जिस तरह बने अपने आत्माकी भावना करके राग द्वेष मोहका क्षय कर देना चाहिये ॥११॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि राग द्वेष मोहोंको उनके चिन्होंसे पहचानकर यथासंभव उनहीका विनाश करना चाहिये। अ अजधागहणं करुणाआयो यतिरियमणुएस्तु । विसयेच अप्पसंगी माहस्सेदाणि लिंगाण ॥२२॥ अर्थे अययाग्रहणं करुणाभावश्च तिअनुप्येषु । विषयेषु च प्रसंगो मोहस्यैतानि लिंगानि ॥१२॥ सामान्यार्थ-पदार्थोके सम्बन्धमें यथार्थ नहीं समझना, तिथंच या मनुष्योंमें राग सहित दया भाव और विषयों में विशेष लीनता ये मोहके चिन्ह हैं। अन्वय सहित विशेपार्थ-(अट्ठे अनधागहण) शुद्ध मात्मा आदि पदार्थोंके स्वरूपमें उनका जैसा स्वभाव है उस स्वभावमें उनको रहते हुए भी विपरीत अमिमायसे औरका और अन्यथा समझना तथा (तिरियमणुएतु) मनुष्य या तीर्यच जीवों में (करुणाभावो य) शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप परम उपेक्षा संयमसे विपरीत दयाका परिणाम अथवा व्यवहारसे उनमें दयाका अभाव होना दर्शन मोहके चिन्ह हैं (विसएसु अप्पसंगो) विषय रहित सुखके
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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