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________________ श्रीपवचनसार भाषांटीका। [३२१ प्रधान हैं। तथा पूर्ण चारित्रके पालनेवाले हैं वे ही निश्चयसे पूजा सत्कारके व दानके योग्य हैं, उनको नमस्कार होहु । अन्वय सहित विशेषार्थ-(दसणसुद्धा) अपने शुद्ध आत्माकी रुचिरूप सम्यग्दर्शनको साधनेवाले तीन मृढ़ता मादि पचीस दोष रहित तत्त्वार्थका श्रद्धानरूप लक्षणक धारी सम्यग्दर्शनसे जो शुद्ध हैं ( णाणपहाणा) उपमा रहित स्वसवेदन ज्ञानके साधक वीतराग सर्वज्ञसे कहे हुए परमागमके अभ्यामरूप लक्षणके धारी ज्ञानमें जो समथ हैं तथा (समग्गचरिमाथा) बिकार रहित निश्चल आत्मानुभूतिके लक्षणरूप निश्चय चारित्रके साधनेवाले आचार आदि शास्त्र में कहे हुए मूलगुण और उत्तरगुणकी क्रियारूप चारित्रसे नो पूर्ण हैं अर्थात पूर्ण चारित्रके पालनेवाले (पुरिसा) जो जीव हैं वे ( पूनासकाररिहा । द्रव्य व भावरून पूना व गुणोंकी प्रगंगारूप स्कारके योग्य हैं, (दाणस यहि) तथा प्रगटपने दान योग्य हैं । (णमो तेसिं) उन पूर्वमें कहे हुए रत्नत्रयके धारियों को नमस्कार हो क्योंकि व ही नमस्कार के योग्य हैं। भावार्थ:-आचार्य ने इसके पहले की गाथामें सच्चे आप्तको नमस्कार करके यहां सच्चे गुरुको ननस्कार किया है। इस गाथामें बता दिया है कि जो साधु निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयके धारी हैं उनहीको भष्ट द्रव्यसे भाव सहित पुनना चाहिये, व उनहीकी प्रशंसा करनी चाहिये । उनहीका पूर्ण णादरं करना चाहिये तथा उनहीको दान देना चहिये व उनहीको नमस्कार करना चाहिये । प्रयोगा यह है कि उच्च मादर्श ही
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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