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________________ ३२०] श्रीमवचनसार भाषाटीका । परिणमते येनामा भावन स तेन तन्मयो भवति । अहंदयानाविष्टो भावाई: स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ १९०।। येन भावेन यदपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९१ ।। ___भाव यह है कि यह आत्मा जिस भावसे परिणमन करता है उसी भारसे वह तन्मयी हो जाता है। श्री भरहंत भगवानके ध्यान में लगा हुआ स्वयं उस ध्यानके निमित्तसे भावमें अरहंत रूप हो जाता है। आत्मज्ञानी जिस भावके द्वारा निस स्वरूप अपने आत्माको ध्याता है उसी भावसे वह उसी तरह तन्मयता प्राय कर लेता है । जिस तरह स्फटिक पत्थरमें जेसी उपाधि लगती है उसी रूप वह परिणमन कर जाता है। ऐसा जान अपने ज्ञानोपयोगमें शुद्ध मात्मस्वरूपकी सदा भावना करनी चाहिये-इसी उपायसे शुद्ध आत्मस्वरूपका लाभ होगा ।। ८॥ ___उत्थानिका:-आगे कहते हैं कि जो पुरुष रत्नत्रय आराधन करनेवाले हैं वे ही दान, पूजा, गुणानुवाद, प्रशंसा तथा नमस्कारके योग्य होते हैं, और को नहीं। दसणसुद्धा पुरिसा, णाण पहाणा समग्गचरियत्या! पूज्जासकाररिहा, क्षणस्त यहि ते णमो तेसिं८८ · दर्शनशुद्धा पुरुषा ज्ञानप्रधाना समग्रचारित्रस्था । पूजासत्कारयोरा दानस्य च हि ते नमस्तेभ्यः ॥ ८८ ॥ सामान्यार्थ-जो पुरुष सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं, ज्ञानमें
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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