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________________ ३२५ ] श्रीमवचनसार भावाटीका । हमारा हितकारी होता है । उनहीचा भाव व आचरण हम उपासकों को उन रूप वर्तन करनेकी योग्यता की प्राप्तिके लिये रणा करता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यभ्चारित्र मोका मार्ग है । निश्चय नयसे शुद्ध आत्माकी रुचि सम्बत है । स्वसंवेदन ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तथा वृद्ध आत्मामें तन्मयता सम्यग्वारित्र है । इन साधने वाले व्यवहार रत्नत्रय हैं-पच्चीस दोष रहित तत्वार्थ श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सर्वज्ञ वीतराग की परम्परासे लिखित शाफा अभ्यास व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । eg गुण और उसके उत्तर गुणको पालना व्यवहार सम्यग्वारित्र हैन व्यवहार रत्नत्रयके धारी निबंध साधु ही मोक्षमागंक साथ चलते हुए को साक्षात मोक्षका मार्ग दिखाने वाले हैं। जैन गृहस्थोंका मुख्य कर्तव्य है कि ऐसे वारनेकी चेष्टा में उत्साही रहे । योग व साम्मा ही उपादेव साधुओं से करे व साधुपर यहां भी यही है कि है | इसके कारण हो साजन पूज्यनीय होते हैं । तत्वज्ञानी गुस्से पर नाम होता है वे ही पूज्यनीय हैं श्री tet तापीति में कहा है: Eranee read समन्ता-मपि निगदेनपलक्ष्यम् । ari गुरुवचोभिध्यते तेन देवा गुरुरधिगततत्वस्तातः पूजनीयः ॥ ६० ॥ यह है कि ज्ञानदर्शन लक्षणधारी अपना आत्मतत्त्व सब तरहसे अपनी देहमें प्राप्त है तथापि देहधारी उसको नहीं
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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