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________________ २६४ ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । वैराग्यवान होकर पवित्र होजाता है ऐसा नान, श्री अरहंत भगarrat ही यादर्श मानके उनकी भक्ति करनी योग्य है तथा भक्ति करते करते उनके समान अपने आत्माको देखकर आपमें आप तिष्ठकर स्वानुभवका आनन्द लेना योग्य दे जो समताको विस्तारकर मोक्षरूप अखंड अविनाशी राज्यकी तरफ ले जानेवाला है ॥ ७१ ॥ उत्थानका- आगे सिद्ध भगवानके गुणोंका स्तवनरूप नमस्कार करते हैं । तं गुणदो अधिगदरं, अविच्छिदं मयुषदेवपदिभाव अपुणभावणिषडं, पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ॥ ७२ तं गुणतः अधिकतरं अविच्छिदमनुनदेवपतिभावं । अपुनर्भावनिबद्धं प्रणमामि पुनः पुनः सिद्धं ॥ ७२ ॥ सामान्यार्थ - गुणों से परिपूर्ण, अविनाशी, मनुष्य व देवोंके स्वामी, मोक्षस्वरूप सिद्ध भगवानको मैं वारवार प्रणाम करता हूं । अन्वय सहित विशेषार्थ - (सं) उस (सिंह) सिद्ध भगवानको जो (गुणो अधिगतरं) अव्यावाद, अनन्त सुख आदि गुणों करके अतिशय पूर्ण हैं, (मविच्छदं मणुवदेवपदिभावं ) मनुष्य व देवोंके स्वागीपने से उल्लंघन कर गए हैं अर्थात् जैसे पहले अरहंत अवस्थामै मनुष्य व देव व इन्द्रादिक समवशरण में आकर नमस्कार करते थे इससे प्रभुपना होता था अव यहां उस भावको लांघ गए हैं अर्थात् सिद्ध अवस्था में न समवशरण है न f
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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