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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२६५ देवादि आते व प्रत्यक्ष नमस्कार करते हैं । (नोट-यहां टीकाकारने अविच्छिदं तथा मणुवदेवपरिभावं इन दोनों पदोंको एकमें मान कर अर्थ ऐसा किया है। यदि हम इन दोनों पदोंको अलगर मानले तो यह अर्थ होगा कि वह सिद्ध भगवान अविनाशी हैं। उनकी अवस्थाका कभी समाव नहीं होगा तथा वे मनुष्य व देवकि स्वामीपनको प्राप्त है अर्थात् उनसे महान इस संसारमें कोई प्राणी नहीं है। सब नहींका ध्यान करते हैं। यहां तक कि तीर्थकर भी सिद्धोंका टी ध्यान छमावस्थामें करते हैं) (अपुणन्मावणिवद) तथा मुक्कावस्थामें निश्चल अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भर, भावरूप पंच परावर्तनरूप संसारसे विलक्षण शुवुद्ध एक स्वभावमई निन आत्माकी प्राप्ति है लक्षण भिसका पेसी मोक्षके माधीन हैं अर्थात् स्वाधीन व मुक्त हैं (पुणो पुणो पणमामि) वारवार नमस्कार करता हूं। भावार्थ:-यहां आचार्यने निकल परमात्मा श्री सिद्धभगवानको जमस्कार किया है । सिद्धोंके शरीर कोई प्रकारके नहीं होते हैं जब कि अरहंतोंके औदारिक तैजस और कार्माण ऐसे तीन शरीर होते हैं । सिद्धोंमें पूर्ण आत्मीकगुण या स्वभाव झलक रहे हैं क्योंकि कोई भी आवरण व कर्मरूपी अंजन सिद्ध भगपानके नहीं है। ये सर्व ही अल्पज्ञानियों के द्वारा भजनीय व पूज्य हैं इसीसे त्रिलोकके स्वामी हैं, उनके स्वभावका कभी वियोग न होगा तथा वे मोक्षके अतींद्रिय आनन्दके नित्य भोगनेवाले हैं। भाचार्यने पूर्व गाथाओंमें जिस केवलज्ञानकी तथा अनन्तमुखको महिमा बताई है उसके जैसे श्री मरहंत भगवान स्वामी हैं वैसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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