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________________ श्रीवचनसार भाषांटीका । [ २६३ जिसके दर्शन मात्र से शांतिं छानाती है । प्रयोजन कहनेका यह है कि जनतक हम निर्विकल्प समाधिमें आरूढ़ नहीं हैं तबतक हमको ऐसे श्री महंत भगवानका पूजन, भजन, आराधन, मनन करते रहना चाहिये । परमपुरुषकी सेवा हमारे भावको उच्च बनानेवाली है । यद्यपि अरहंत भगवान वीतराग होनेसे भक्ति करनेवालेसे प्रसन्न नहीं होते और न कुछ देते हैं परन्तु उनकी भक्ति से हमारे भाव शुभ होते हैं जिससे हम स्वयं पुण्य कमौको बांध लेते हैं और यदि हम अपने भावोंमें उनका निरादर करते व उनकी वचन से निन्दा करते हैं तो हम अपने ही अशुभ भावसे पाप कर्मोtat air लेते हैं वे वीतराग हैं-समदर्शी हैं। न प्रसन्न होते न अपसन्न होते हैं । तथापि उनका दर्शन, पूजन, स्तवन हमारा उपकार करता है - जैसा श्री समंतभद्रस्वामीने अपने स्वयंभू स्तोत्र में कहा है । न पूजार्थत्वा वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चिचं दुरिताभनेभ्यः ॥५७॥ भावार्थ - हे भगवान! आप चीतराग हैं। आपको हमारी पूजा या भक्तिसे कुछ प्रयोजन नहीं है । अर्थात् आप हमारी पूजा से प्रसन्न नहीं होते, वैसे ही आप वैर भावसे रहित हैं इससे हमारी निन्दा से आप विकारवान नहीं होते हैं ऐसे आप उदासीन हैं तथापि आपके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापके मैलोंसे पवित्र करता है अर्थात् मापके शुद्ध गुणको जब हमारा मन स्मरण करता है तब हमारा पाप नष्ट होजाता है और मन
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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