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________________ [७ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। न उनको किसी ज्ञेयके जाननेकी न किसी ज्ञेयके भोगनेकी चिंता है। वे परम तृप्त हैं। अनंत चीयक प्रगट होनेसे वे प्रभु अपने स्वभावका विलास करते हुए तथा स्वमुख स्वाद लेते हुए कमी भी थकन, निर्बलता तथा अनुत्साहको प्राप्त नहीं होते हैं । न उनके शरीरको निर्बकता होती है और न उस निर्बलताके कारण कोई आत्मामें खेद होता है इसीलिये प्रमुके उपयोग में कभी भी भूख प्यासकी चाहकी दाह पैदा नहीं होती, विना चाहकी दाहके वे प्रभु मुनिवत् मिक्षार्थ नाते नहीं और न भोजन करते हैं । वे प्रभु तो स्वात्मामें पूर्ण तरह मस्त हैं । उनके कोई संकल्प विकल्प नहीं होते हैं। उनका शरीर भी तपके कारणसे अति उच्च परमौदारिक हो जाता है। उस शरीरको पुष्टि देनेवाली आहारक वर्गणाएं अंतराय कर्मके क्षयसे विना विघ्नके आती हैं । और शरीरमें मिश्रण होकर उसी ताह शरीरको पुष्ट करती हैं। जिस तरह वृक्षादिके बिना मुस्वसे खाए हुए मिट्टी, नलादि सामग्रीका ग्रहण होता और वृक्षादिका देह पुष्ट होता है। वे समाधिस्थ योगी साधारण मानुषीय व्यवहारसे दूरवर्ती जीवन्मुक्त परमात्मा होगए हैं। अनंत बल उनको कभी भी असंतुष्ट या क्षीण नहीं अनुभव।. कराता। अनंत सुख प्रगट होनेसे वे प्रभु पूर्ण आत्मानंदको विना किसी विघ्नबाधा या व्युच्छित्तिके भोगते रहते हैं । मोहनीय कर्मके क्षय होजानेसे प्रभुके क्षायिक सम्यक्त तथा क्षायिक चारित्र विद्यमान है निससे स्वस्वरूपके पूर्ण श्रद्धानी तथा वीतरागतामें पूर्ण तन्मय हैं । वास्तवमें चार घातिया कोसे मलीन आत्माओंके लिये चार
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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