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________________ श्रीमवचनसार भाषाका । [ २३५ पहले कहीं हुई तीन गाथाओंके कथन प्रमाण सुनकर के भी - जानकर के भी ( ण हि सद्दति ) निश्वयसे नहीं श्रद्धान करते हैं नहीं मानते हैं (ते अभव्या) वे अभव्य जीव हैं अथवा वे सर्वथा अभव्य नहीं हैं किंतु दूरभव्य हैं। जिनको वर्तमानकाल में सम्यक्त रूप भव्यत्व शक्तिकी व्यक्तिका अभाव है। (वा) तथा ( भव्वा ) जो भव्य जीव हैं अर्थात जो सम्यकदर्शन रूप भवत्व शक्तिकी प्रगटतामें परिणमन कर रहे हैं । भावार्थजिनके भव्य शक्तिकी व्यक्ति होनेसे सम्यकूदर्शन प्रगट हो गया है वे (तं पडिच्छेति) उस अनंत सुखको वर्तमान में श्रद्धान करते हैं तथा मानते हैं और जिनके सम्यक्तरूप भव्यत्त्व शक्तिकी प्रगताकी परिणति भविष्यकालमें होगी ऐसे दूरभव्य वे मागे श्रद्धान करेंगे। यहां यह भाव है कि जैसे किसी चोरको कोतवाल मारनेके लिये लेजाता है तब चोर मरणको लाचारीसे भोग लेता है तैसे यद्यपि सम्यम्टष्टियोंको इंद्रियसुख इष्ट नहीं है तथापि कोतवालके समान चारित्र मोहनीयके उदयसे मोहित होता हुआ सराग सम्यग्दी जीव वीतरागरूप निज आत्मासे उत्पन्न सच्चे सुखको नहीं भोगता हुआ उस इंद्रियसुखको अपनी निन्दा गर्हा आदि करता हुआ त्यागबुद्धिसे भोगता है। तथा जो वीतराग सम्यग्टष्टी शुद्धोपयोगी हैं, उनको विकार रहित शुद्ध आत्माके सुखसे हटना ही उसी तरह दुःखरूप झलकता है जिस तरह मउलियोंको भुमिपर आना तथा प्राणीको अग्निमें घुसना दुःखरूप भासता है। ऐसा ही कहा हैसमसुखगीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामाः । स्थलमा दहति झपाणां किमङ्ग पुनरंङ्गमङ्गाराः ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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