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________________ ANNAVNATH २३४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। गया है । यद्यपि सुख नामका गुण आत्माका विशेष गुण है और वह ज्ञानसे भिन्न है तथापि यहां शुद्धज्ञान और मीद्रिय निर्मल सुखके बोध या अनुभवका अविनाभाव सम्बन्ध है इसलिये ज्ञानको ही अभेद नयसे सुख कहा है। प्रयोजन यह है कि विना केवल. ज्ञानकी प्रगटताके अतींद्रिय अनन्त सुख नहीं प्रगट हो सका है। इस लिये जिस तरह बने इस स्वाभाविक केवलज्ञानकी प्रगटताके लिये हमको खानुभवका अभ्यास करना चाहिये ॥ ६ ॥ - उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पारमार्थिक सच्चा अतीन्द्रिय आनन्द केवलज्ञानियोंके ही होता है। जो कोई संसारियोंकि भी ऐसा सुख मानते हैं वे अभव्य हैं। ण हि सद्दहति सोक्वं, सुहेसु परमंति विगयादीण। सुणिऊण ते अभव्या भव्वा वातं पडिच्छति ॥३२ न हि श्रद्दधति सौख्यं सुखेसु परममिति विगतपातिनाम् । अत्वा ते अमन्या भन्या वा तत्पतीच्छति ॥ ६२ ॥ सामान्यार्थ-धाविया कोसे रहित केवलियोंके जो कोई सब सुखोंमें श्रेष्ठ अतीन्द्रिय सुख होता है ऐसा सुनकरके भी नहीं श्रद्धान करते हैं वे अभव्य हैं। किन्तु भव्य जीव इस बातको मानते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(विगदघादीण ) घासिया कर्मोसे रहित केवली भगवानोंके ( सुहेसु परमंति ) सुखोंके बीचमें उत्कृष्ट जो (सोक्ख ) विकारः रहित परम आल्हादमई एक सुख है उसको (सुणिऊण) 'नादं सयं समत्तं ' इत्यादि
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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