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________________ श्रीप्रवचनसारं भापाटीका । भाव यह है - समतामई सुखको भोगने वाले पुरुषों को समता से गिरना ही जब बुरा लगता है तब भोगों में पड़ना कैसे दुःख रूप न भासेगा ! नव मछलियोंको जमीन ही दाह पैदा करती है व अग्नि अंगारे हे आत्मन् ! दाह क्यों न करेंगे । १ ! " भावार्थ - इस गाथानें आचार्यने यह बात दिखलाई है कि - सच्चा अतीन्द्रिय आत्मीक आनन्द अवश्य चार घातिया रहित - केवलज्ञानियोंके प्रगट होजाता है इसमें कोई सन्देह न करना चाहिये क्योंकि सुख आत्माका स्वभाव है। ज्ञानावरणीयादि चारों -ही कर्म उस शुद्ध अनंत सुखके बाधक थे, उनका जय नारा होगया तब उस आत्मीक आनन्दकी प्रगटतामें कौन रोकनेवाला होता है ? कोई भी नहीं । केवलज्ञानी अरहंत तथा सिद्धोंके ऐसा ही आत्मीक आनन्द है इस बातका श्रद्धान अभव्योंको कभी नहीं पैदा हो सक्ता है। क्योंकि जिनके कर्मो के अनादि बंधनके, कारण ऐसी कोई मंमिट मकीनता होगई हैं जिससे वे कभी भी शुद्ध भावको पाकर सिद्ध नहीं होंगे उनके सम्यग्दर्शन ही होना अशक्य है | बिना मिध्यात्वकी काळिमा हटे हुए उस शुद्ध -सुखकी जातिका श्रद्धान कोई नहीं कर सक्ता है । भव्योंमें भी जिनके संसार निकट है उनहीके सम्यक्तभाव प्रगट होता हैं । सम्यक्त भावके होते ही भव्य जीवके स्वात्मानुभव अर्थात् अपने आत्माका स्वाद आने लगता है। इस स्वादमें ही उसी सच्चे सुखका स्वाद आता है जो आत्माका स्वभाव है । इस चौथे अविरत सम्यग्टण्टी के भीतर भी उसी जातिके सुखका स्वाद माता है जो सुख अरहंत तथा सिद्धोंके प्रगट है, यद्यपि नीचे गुणस्था 1 २३६ 1
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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