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________________ श्रीमवचनसार भापाटीका। [२३१ जिससे माकुळता या खेद हो। दूसरे जन किसीको जाननेकी बहुत इच्छा है और सबको एक साथ जान न सके क्रमक्रमसे थोड़ा २ नाने तब खेद होता है सो यहां ज्ञानावरणीय कर्मका सर्वथा क्षय हो गया इसलिये आत्माके स्वाभाविक ज्ञान गुणके विकाशमें बाधक कोई कारण नहीं रहा निससे भाकुलता या खेद हो । तीसरे जब किसी में बहुत कार्य करनेको चाह हो परन्तु वीर्यकी कमीसे कर न सके तब खेद होता है । सो यहां अंतराय कर्मका सर्वथा नाश हो गया इससे आत्माके स्वाभाविक अनंतवीर्यके विकाशमें कोई : कोई नापक कारण नहीं रहा निससे खेद हो। चौथे जब किसीको पुनः पुनः इच्छाएं नाना प्रकारकी हों तथा किसीमें राग व किसीमें द्वेष हो तब आकुलता या खेद होसक्ता है सो यहां सर्व मोहनीय कर्मका नाश होगया है इससे कोई प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेदरूप कलुषित भाव नहीं होता है, न कोई इच्छा पैदा होती है । इसतरह चार घातिया कर्मोंका उदय मात्मामें खेद पैदा करसता है सो केवलज्ञानी भगवानके चारों धातिया क्षय होगए इसलिये उनको कोई तरहका खेद नहीं होसक्ता, वे पूर्ण निराकुल हैं। केवलज्ञान भी कोई अन्य स्वभाव नहीं है मात्माका स्वाभाविक परिणमन है इससे वह सुखरूप ही है। इसतरह यह सिद्ध करदिया गया कि केवलज्ञानीको अनंत पवायोको जानते हुए भी कोई खेद या श्रम नहीं होता है। ऐसी महिमा केवलज्ञानकी जानकर उसीकी प्राप्तिका यत्न करनेके लिये साम्यभावका लम्बन करना चाहिये ॥ ६ ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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