SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३०] श्रीमवचनसार भाषाटीका । है। तैसे ही उन केवली भगवान के भीतर तीन जगत् और तीन. कालवर्ती सर्व पदार्थोको एक समयमें जाननेको समर्थ अखंड एकरूप प्रत्यक्ष ज्ञानमय स्वरूपसे परिणमन करते हुए केवलज्ञान ही परिणाम रहता है। कोई केवलज्ञानसे भिन्न परिणाम नहीं होता है जिससे कि खेद होगा। अथवा परिणामके सम्बन्धमें दूसरा व्याख्यान करते हैं-एक समयमें अनंत पदार्थोके ज्ञानके. परिणाममें भी वीर्यातरायके पूर्ण क्षय होनेसे अनन्तवीर्यके सदभाबसे खेदका कोई कारण नहीं है। वैसे ही शुद्ध आत्ममदेशोंमें समतारसके भावसे परिणमन करनेवाली तथा सहन शुद्ध आनन्दमई एक लक्षणको रखनेवाली, सुखरसके मास्वादमें रमनेवाली आत्मासे अभिन्न निराकुलताके होते हुए खेद नहीं होता है। ज्ञान और सुखमें संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिका भेद होनेपर भी निश्चयसे अभेदरूपसे परिणमन करता हुमा केवलज्ञान ही सुख कहा जाता है । इससे यह ठहरा कि केवलज्ञानसे भिन्न सुख नहीं है इस कारणसे ही केवलज्ञानमें खेदका होना संभव नहीं है। भावार्थ:-इस गाथामें भाचार्यने अतीन्द्रिय सुखके साथ भविनाभावी केवलज्ञानको सर्व तरहसे निराकुल या खेद रहित बताया है । और यह सिद्ध किया है कि केवलज्ञानकी अवस्थामें खेद किसी भी तरह नहीं हो सकता है । खेदके कारण चार ही हो सके हैं। नव किसीको देखनेकी बहुत इच्छा है और सबको एक साथ देख न सके क्रम क्रमसे थोड़ा देखे तब खेद होता है सो यहां दर्शनावरणीय कर्मका नाश होगया इसलिये मात्माके स्वाभाविक दर्शन गुणके विकाशमें कोई बाधक कारण नहीं रहा
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy