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________________ १३२] श्रीप्रवचनसार भाषा का । . उत्थानिका-आगे फ़िर भी केवलज्ञानको सुखरूपपना अन्य प्रकारसे कहते हुए इसी बातको पुष्ट करते हैं- . णाणं अत्यंतगर्द, लोगालोगेतु वित्थडा विही। गट्ठमाणि सवं, इं पुण जंतु तं लहं ॥ ११ ॥ ज्ञानमर्थातगतं लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः ।। नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनर्यत्तु तल्लब्धम् ॥ ६१ ॥ . सामान्धार्थ-केवलज्ञान सर्व पदार्थोके पारको प्राप्त हो गया तथा केवलदर्शन लोक और अलोकमें फैल गया। जो अनिष्ट था वह सब नाश हो गया तथा जो सर्व इष्ट था सो सब प्राप्त हो गया। अन्वय सहित विशेषार्थ-(गाणं) केवलज्ञान (अत्थंतगर्द) सर्वज्ञेयोंके अंतको प्राप्त हो गया अर्थात् केवलज्ञानने सब जान लिया ( विट्ठी ) केवलदर्शन ( लोगालोगेसु वित्थडा ) लोक और अलोकमें फैल गया ( सव्वं प्रणिé ) सर्व अनिष्ट ' अर्थात् अज्ञान और दुःख (णटुं) नष्ट हो गया (पुण) तथा (जतु इह तं तु लई) जो कुछ दृष्ट है अर्थात् पूर्ण ज्ञान तथा सुख है सो सत्र प्राप्त हो गया। इसका विस्तार यह है कि आत्माके स्वभाव घातका अभाव सो सुख है। आत्माका स्वभाव केवलज्ञान और केवलदर्शन है । इनके घातक फेवलज्ञानावरण तथा केवलदर्शनावरण हैं सो इन दोनों आवरणों का अभाव केवलज्ञानियोंके होता है, इसलिये स्वभावके, घातके अभावसे होनेवाला सुखं होता है । क्योंकि परमानन्दमई एक लक्षणरूप सुखके उल्टे आकुलताके पैदा करने
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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