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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका । [ २२९ उत्थानका - मागे कोई शंका करता है कि जब केवल - ज्ञानमें अनन्त पदार्थों का ज्ञान होता है तब उस ज्ञानके होने में अवश्य खेद या श्रम करना पड़ता होगा । इसलिये वह निराकुळे नहीं है । इस शंकाका समाधान करते हैं जं केवलति णाणं, तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो, जम्हा घादी खयं जादा ॥ ६०॥ यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं परिणमश्च स चैव । खेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥ ६० ॥ सामान्यार्थ - नो यह केवलज्ञान है वही सुख है तथा वही आत्माका स्वाभाविक परिणाम है, क्योंकि घातिया कर्म नष्ट होगए हैं इसलिये उस केवलज्ञानके अंदर खेद नहीं कहा गया है। अन्वय सहित विशेषार्थ - (नं केवलत्ति णाणं) जो यह केवलज्ञान है ( तं सोक्खं) वही सुख है (सो चैव परिणमं च ) तथा वही केवलज्ञान सम्बन्धी परिणाम आत्माका स्वाभाविक परि मन है । (जम्हा) क्योंकि ( घादी खयं जादा ) मोहनीय आदि घातिया कर्म नष्ट होगए (तस्स खेदो ण भणिदो) इस लिये उस अनंत पदार्थोंको जाननेवाले केवलज्ञानके भीतर दुःखका कारण खेद नहीं कहा गया है । इसका विस्तार यह है कि जहां ज्ञानावरण दर्शनाचरणके उदयसे एक साथ पदार्थोंके जाननेकी शक्ति नहीं होती हैं किंतु क्रमक्रमसे पदार्थ जाननेमें आते है वहीं खेद होता है । दोनों दर्शन ज्ञान आवरणके अभाव होनेपर एक साथ सर्व पदाथको जानते हुए केवलज्ञानमें कोई खेद नहीं है किंतु सुख ही
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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